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________________ ( १६३ ) __ अपन अब्बलही समझ चुके है सो जिसकेलिये धनवानका धन __ अयोग रीतिसे खरचाताहै, और गरीब अधम स्थितिको पाते है, ऐसे रिवाजोंकोही बन्ध करनेसे परोपकार मिलता है इस पातये मै शामिल हु तथा मिरताह ऐमा कहार अपने आगे वानोको बैठा रहना इसमें कुच्छ फायदा न होगा इसलिये तमाम आगेवानोकों इकठे करके समझनान ज्ञानवान अग्रेसगेंकों चाहिये कि दूसराको समझाये और ऐसा सक्त ठहराम करे कि जिसके यहा मृत्यु हो तो उसके (मरनेहार) पीछे बिलकुल नुकता करना नहीं, वैसेही उसके साथमें उस उहरायका उल्धन करनेवाला पेसावालाहो कि गरीर उसको ऐसी शिक्षा देनी चाहिये कि दूसरे उल्लघन न करें और मजस्त जड जमजाय, और यह नुकता करना आगेवान लो. गांके यहासेही बन्ध हो तो कियाहुआ ठहराव जल्दही अमरमें आवे. इस लिये इस विषयमें आगेवान लोग तन मन और उनसे परिश्रम करे तो इस दुष्ट रिवाजको देशवटा देना कोई मुशकिल नहीं है। इस दुष्ट रिवाजको बन्ध करने वायद सुपरहुवे विद्यमान जैन बाधनों जो इम दुष्ट रिवानके विरुद्ध है वो अपनी शक्ति व विद्वत्ताका उपयोग कर भाषन अथवा अन्य कोई उपायसे इससे कितना नुकसान है वगैरः फुल हकीकत विस्तारपूर्वक आगेवानोके दिलमें जमानेका प्रयत्न करे तो उससे विषेश अ
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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