SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६० ) (मृत्युके पीछे) सत् क्रिया, देश, काल, शौच और ब्राह्मणकी संपदा, इन पांच वस्तुका (ब्रह्मभोजनके ) विस्तारसं नाग होता है, तथा उसमें विस्तारको नही इच्छना चाहिये. (अर्थात् जो अधिकाधिक ब्राह्मणोंको जिमानेकी खटपट पड़े तो वि. धि मुजब मरनहारकी उतरक्रिया हो नहीं शती, इससे सतक्रियाका नाश होता है. जितनी स्वच्छ जगा चाहिये उतनी नहीं मिलती, वक्तपर खरावभी नहीं मिलती और शास्त्रोक्त चोखाई नहीं रह सक्ती इत्यादि.)२ श्राद्धमें मित्रको न जिमाना चाहिये, धनादिक तथा दूसरे उपायो द्वारा उसकी मित्रता संपादन कीजियें. जो ब्राह्मण वैरीके मुताविक या मित्रकी तरह न मालूम हो उसी उदासीन वृत्तिवनको श्राद्धमें जिमाना (जव श्राद्धमें भोजनका निषेध करने में आता है तव ज्ञातिका निपेध तो स्वयमेव सम्मभावित हे.)३ शास्त्रके अज्ञानसे श्राद्ध भोजन कराके जो मनुष्य मित्रता सम्पादन करता है वह श्राद्ध निमित्तपर मित्र करनेवाला अधम मनुष्य स्वर्गलोकसें नीचे पडता है)४ श्राद्ध में जीमनेसे ब्राह्मणकोभी प्रायश्चित लेना पड़ता है तभी वह शुद्ध होता है. हारितमुनिने कहाहै किचांद्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मिश्रके । एका हस्तु पुराणेपु प्राजपत्यं विधियते ।।
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy