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________________ ( १३९ ) त्यागकर आप परलोक पधारगये मृत्युके चार दिन प्रथम केल हिका (हिचकी) की व्याधी रही, शिप्यपरिवार औपयोपचार करनेल्गे, आपने कहदिया क्यों उपाय करतहो, अब हम नही चैगे। तथापि शिप्योने कहा, नही महाराजा यह तुच्छ व्याधी अभि मिटजायगी और आप अच्छे होजावोगे, दवा लेनी चाहिये, आप शिष्योंके आग्रहसे दवा ले लेते थे दुष्ट हिका क्रमशः बढती हुईही चलीगई, कोई दरा काराजामह न हुई जब सभी वैध डास्टर हताश हो चुरे और सभीने यह कह दिया कि, इस हिकाकै वाग्में हमारी समझमें कुछभी नहीं आसक्ता आर यह अच्छी होना पठीन है, तर सभीको यह नि-बय होगया अब गुरुमहाराजका शरीर रहना नितान्त असभव है। आपने शिप्यासे कहाकि, "मै तुमको प्रथमसे ही कहचुकार अब मेरा आयुष्य अधिक नहीं है, तुम नाहक मोहजालमं पदेहो, महावीर सरीव तीर्थंकर महागनाओंकोभी इस नश्वर देहका त्यागकरना पड़ा है, तुम धर्म यान करते रहो,-परमेष्टी मत्रका जाप हमेशाह करते रहना म परमेष्टीहीका व्यान करनाह मुगे यकीन है कि मेरा पण्डित मरण होगा और अगले भवमें मेरी सद्गति एवमर्गगति होगी मेरेको तुमने अपने उदयमें समझना मैने जो जो माग्न अक्षर पहाये ह ये सभी मनवत है ससारके जारसे सदा दररहना आत्मा अफेला आया है अकेलाही नायगा, कोई किसीका
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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