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________________ ( १४० ) साथी नहीं है, संसार मोहजालसे बंधाहुआ है, तुम लोक जैन धर्मकी दृढ श्रद्धा रखना, मैं तुमसे दूर नहीं हूं, जब मुझे याद करोगे और वह कार्य उचित समझुंगा तो अवश्य मै आकर तुमारा कार्य कर दूंगा. उस समय वृहत शिष्यने कहा आपका यह अन्तिम उपदेश हमारे लिये रत्नोसेभी अधिक मूल्यवान् है, हम यह कभी नही भूलैगे, आपके मुखसे आपकी सद्गतिका वृत्तान्त सुनकर हमको वहोत आनंदहुआ. आप ज्योतिपी देवता होगे यह योग्यही है, आपनें फरमाया, इसका प्रमाण तुमको शीघ्र मिलजायगा, फिर आपने यह कहा कि, तुमको जो जो बात पूछना हो तो पूछ लो. अब समय थोडा शेष रहा है, अब में मौन स्वीकार करके आत्मध्यान एवं परमेष्टी ध्यानमेंही स्थिर रहना श्रेय समझता हूं, फिर आप किसीसे नही बोले. आराधना विधि एवं क्षामणा विधि तो आप प्रथम करही चुके थे. शिप्यपरिवारभी परमेष्टी महामंत्रकी ध्वनी करते समीप वैठेरहे । करीव ३ वजे दिनके श्वासोश्वास लेना बंध होगया-सभीकी यह समझ हुई की देह त्याग दीया; परंतु संध्याके ६ वजेतक आपका शरीर ऐसाही उष्ण एवं तेजश्वी था. तीन वजेहीसें काष्टकी वैकुंठी-देवविमान बनवानेको कारीगर विठवादियेथे, सामको ५॥ साढे पांचवजे-विमान तयार होगयाथा. रेसमी वस्त्रोंसे विमानको सुशोभित कियागया था. चांदीकी ध्वजा पताकाओंकी शोभा अद्वितीयथी, उक्त विमा
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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