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________________ नरकगतिदुःख-वर्णन - नरकोंमें नारकियोंके उत्पन्न होनेके स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उत्पन्न होकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलोंको ग्रहण करके अन्तर्मुहूर्त कालमें पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है ॥१३५-१३६॥ उववायानो णिवडइ पज्जत्तयो दंडत्ति' महिवीढ़े। अइकक्खडमसहंतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ ॥१३७॥ वह नारकी पर्याप्तियोंको पूरा कर उपपादस्थानसे दंडेके समान महीपृष्ठपर गिर पड़ता है। पुनः नरकके अति कर्कश धरातलको नहीं सहन करता हुआ वह सहसा ऊपरको उछलता है और फिर नीचे गिर पड़ता है ॥१३७॥ जइ को वि उसिणणरए मेरुपमाणं खिवेइ लोहंडं । ण वि पावइ धरणितलं विलिज्जतं अंतराले वि ॥१३॥ यदि कोई उष्णवेदनावाले नरकमें मेरु-प्रमाण लोहेके गोलेको फेके, तो वह भूतलको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें ही विला जायगा अर्थात् गल जायगा। (नरकोंमें ऐसी उष्ण वेदना है) ॥१३८।।। अह तेवंड तत्तं खिवेइ जइ को वि सीयणरयम्मि । सहसा धरणिमपत्तं सडिज्ज तं खंडखंडेहिं ।।१३९॥ यदि कोई उतने ही बड़े लोहेके गोलेको शीतवेदनावाले नरकमें फेंके, तो वह धरणी तलको नहीं प्राप्त होकर ही सहसा खंड खंड होकर बिखर जायगा। (नरकोंमें ऐसी शीतवेदना है) ॥१३९॥ तं तारिससीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ थिरएसु । बिसहइ जावज्जीव वसणस्स फलेणिमो जीओ ॥१०॥ नरकोंमें इस प्रकारकी सर्दी और गर्मी क्षेत्रके स्वभावसे ही होती है । सो व्यसनके फलसे यह जीव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदनाको यावज्जीवन सहा करता है ॥१४०॥ तो तम्हि जायमत्ते सहसा दळूण णारया सम्वे । पहरंति सत्ति-मुग्गर -तिसूल-णाराय-खग्गेहिं ॥१४॥ उस नरकमें जीवके उत्पन्न होनेके साथ ही उसे देखकर सभी नारकी सहसाएकदम शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्गसे प्रहार करने लगते हैं ॥१४१॥ तो खंडिय-सब्वंगो करुणापलावं रुवेइ दीणमुहो। पभणंति तो रुद्वा किं कंदसि रे दुरायारा ॥१४२॥ नारकियोंके प्रहारसे खंडित हो गये है सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नवीन नारकी दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हुआ रोता है। तब पुराने नारकी उसपर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है ॥१४२।। जोवणमएण मत्तो लोहकसाएण रंजिश्रो पुन्वं । गुरुवयणं लंधित्ता जूयं रमिश्रो जं प्रासि ॥१४॥ यौवनके मदसे मत्त होकर और लोभकषायसे अनुरंजित होकर पूर्व भवमें तूने गुरुवचनको उल्लंघन कर जूआ खेला है ॥१४३॥ म. दड त्ति, ब, उदउ ति । २ ब. प. महिंवटे, म. महीविट्ठ। ३ इ. विलयम् जत्तंत०, स. चिलज्जतं, विलिज्जतं अंत० । म, विलयं जात्यंत । मूलराधना गा० १५६३ । ४. तेवढं, ब. ते वह। ५ झ. संडेज, म. सडेज्ज । मूलारा. १५६४ । ६ ब. मोगगर-। ७ ब. खंडय०।८ इ. जं मांसि ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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