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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तस्स फलमुदयमागयमलं हि रुयणेण विसह रे दुडू। रोवंतो वि ण छुट्टसि कयावि' पुग्वकयकम्मस्स ॥१४॥ अब उस पापका फल उदय आया है, इसलिए रोनेसे बस कर, और रे दुष्ट, अब उसे सहन कर । रोनेसे भी पूर्व-कृत कर्मके फलसे कभी भी नहीं छूटेगा ॥१४४।। एवं सोऊण तो माणसदुखं वि' से समुप्पण्णं । तो दुविह-दुक्खदड्डो रोसाइटठो इमं भणइ ॥१४५॥ इस प्रकारके दुर्वचन सुननेसे उसके भारी मानसिक दुःख भी उत्पन्न होता है । तब वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारके दुःखसे दग्ध होकर और रोषमें आकर इस प्रकार कहता है ।।१४५॥ जइ वा पुवम्मि भवे जूयं रमियं मए मदवसेण । तुम्ह को अवराहो कत्रो बला जेण में हणह॥१४६॥ यदि मैने पूर्व भवमें मदके वश होकर जुआ खेला है, तो तुम्हारा क्या अपराध किया है, जिसके कारण जबर्दस्ती तुम मुझे मारते हो ॥१४६॥ __एवं भणिए वित्तण सुटु रुठेहिं अग्गिकुंडम्मि । पजलयम्मि णिहित्तो डज्मइ सो अंगमंगेसु ।।१४७॥ ऐसा कहनेपर अतिरुष्ट हुए वे नारकी उसे पकड़कर प्रज्वलित अग्निकुंडमें डाल देते हैं, जहांपर वह अंग-अंगमे अर्थात् सर्वाङ्गमें जल जाता है ॥१४७।। तत्तो णिस्सरमाणं वठ्ठण उमसरेहि अहव कुंतेहिं । पिल्लेऊण रडतं तत्येव छुहंति श्रदयाए ॥१४॥ उस अग्निकुंडसे निकलते हुए उसे देखकर झसरोंसे (शस्त्र-विशेषसे) अथवा भालोंसे छेदकर चिल्लाते हुए उसे निर्दयतापूर्वक उसी कुंडमें डाल देते है ॥१४८॥ हा मुयह मं मा पहरह पुणो वि ण करेमि एरिसं पावं । दंतेहि अंगुलीओ धरेइ करुण पुणो रुवइ ।।१४९॥ हाय, मुझे छोड़ दो, मुझपर मत प्रहार करो, मै ऐसा पाप फिर नही करूँगा, इस प्रकार कहता हुआ वह दांतोंसे अपनी अंगुलियां दबाता है और करुण प्रलाप-पूर्वक पुनः पुनः रोता है ॥१४९॥ . ण मुयंति तह वि पावा पेच्छह लीलाए कुणइ जं जीवो। - तं पावं बिलवंतो एयहिं दुक्खेहिं णित्थरह" ॥१५॥ तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोड़ते हैं। देखो, जीव जो पाप लीलासेकुतूहल मासे, करता है, उस पापको विलाप करते हुए वह उपर्युक्त दुःखोंसे भोगता है ॥१५॥ तत्तो पलाइऊणं कह वि य माएण५ दडसम्वंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसह सरण ति मगणंतो ॥१५॥ "जबर्दस्ती जला दिये गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नारकी जिस किसी प्रकारसे --- १ ब. रुगणेण । २ इ. नं, स. ब. तं०।३ ब. कयाइं। १ इ.स. ब. म. विसेसमुप्पण्णं । ५ इ. ब. था। ६ इ. तुम्हे, झ. तोम्हि, ब. तोहितं । ७ इ. महं, म. है। ८ इ.हणहं। ९इ. मुब, म. मुधा । १० इ. तासे हि, म. ता सही। ११. ब. कलुर्ण। १२ इ. जूवो । १३ ब. एयह। १४ म. णित्थरो ह हो। प. णिच्छरइं१५. वयमाएण, ब. चपमाएण ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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