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________________ ८८ वसुनन्दि-श्रावकाचार मंसासणेण गिद्धो वगरक्खो एगचक्कणयरम्म । रज्जाबो पन्भट्ठो अयसेण मुमो गो णरयं ॥१२७॥ . एकचक्र नामक नगरमे मांस खाने में गृद्ध बक राक्षस राज्यपदसे भ्रष्ट हुआ, अपयशसे मरा और नरक गया ॥१२७॥ सम्वस्थ णिवुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो वि। खाऊण धणं पत्तो दुक्खं परदेसगमणं च ॥१२॥ सर्व विषयोंमें निपुण बुद्धि चारुदत्तने भी वेश्याके संगसे धनको खोकर दुःख पाया और परदेशमें जाना पड़ा ॥१२८॥ होऊण चक्कवही चउदहरयणाहियो' वि संपत्तो। मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण ॥१२६॥ चक्रवर्ती होकर और चौदह रत्नोंके स्वामित्वको प्राप्त होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार खेलनेसे मरकर नरकमें गया ॥१२९।। णासावहारदोसेण दंडण पाविऊण सिरिभूई। मरिऊण अहसाणेण हिंडिओ दीहसंसारे ॥१३०॥ न्यासापहार अर्थात् धरोहरको अपहरण करनेके दोषसे दंड पाकर श्रीभूति आर्तध्यानसे मरकर संसारमें दीर्घकाल तक रुलता फिरा ॥१३०॥ होऊण खयरणाहो वियक्खणो श्रद्धचक्कवट्टी वि। मरिऊण गो' णरयं परिस्थिहरणेण लंकेसो ॥१३॥ विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरोंका स्वामी होकर भी लंकाका स्वामी रावण परस्त्रीके हरणसे मरकर नरकमें गया ॥१३॥ एदे महाणुभावा दोसं एकक-विसण-सेवाओ। पत्ता जो पुण सत्त वि सेवह परिणज्जए किं सो ॥१३॥ ऐसे ऐसे महानुभाव एक एक व्यसनके सेवन करनेसे दुःखको प्राप्त हुए । फिर जो सातों ही व्यसनोंको सेवन करता है, उसके दुःखका क्या वर्णन किया जा सकता है ॥१३२।। साकेते सेवंतो सत्त वि वसणाई रुदत्तो वि । मरिऊण गो गिरयं भमिओ पुण दीहसंसारे ॥१३॥ साकेत नगरमें रुद्रदत्त सातों ही व्यसनोंको सेवन करके मरकर नरक गया और फिर दीर्घकाल तक संसारमें भ्रमता फिरा ॥१३३॥ नरकगतिदुख-वर्णन सत्तण्हं विसणाणं फलेण संसार-सायरे जीवो। जं पावइ बहुदुक्खं तं संखेवेण बोच्छामि ॥१३॥ सातों व्यसनोंके फलसे जीव संसार-सागरमें जो भारी दुःख पाता है, उसे मैं संक्षेपसे कहता हूँ ॥१३४॥ अइणिहरफरुसाई पूह-रुहिराई अइदुगंधाई। असुहावहाई णिच्च गिरएसुप्पत्तिाणाई ॥१५॥ तो तेसु समुप्पण्यो माहारेऊण पोग्गले असुहे। अंतोमुहुतकाले पज्जत्तीभो समाणेह॥१३॥ म. लुद्धो। २ ब. एय० । ३ ब. -यणीहियो। ब. गयउ । ५प. एए। म. ब. बसण। प. साकेए। ब. असुहो
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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