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________________ परदारादोष-वर्णन ८७ जो निर्बुद्धि पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसकी अभिलाषा करता है, सो ऐसा करनेपर वह पाता तो कुछ नहीं है, केवल पापका ही उपार्जन करता है ॥११२॥ परस्त्री-लम्पट पुरुष जब अभिलषित पर-महिलाको नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निःश्वास छोड़ता है, रोता है, कभी गाता है, कभी अपने शिरको फोड़ता है और कभी भूतल पर गिरता पड़ता है और असत्प्रलाप भी करता है ॥११३॥ परस्त्री-लम्पट सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है, अथवा नहीं चाहती है ? मैं उसे किस उपायसे लाऊं? किसीसे कह, अथवा नहीं कहं? इस प्रकार निरन्तर चिन्तातुर रहता है ॥११४॥ वह परस्त्री-लम्पटी कहीं पर भी रतिको नहीं प्राप्त करता है, मिष्ट भी भोजनको नहीं खाता है और निद्राको नहीं लेता हुआ वह सदा स्त्री-विरहसे संतप्त बना रहता है ॥११५॥ परस्त्री-लम्पटी लज्जा और कुल-मर्यादाको छोड़कर मद्य-मांस आदि निंद्य भोजनको करके परस्त्रियोंके चित्तको नहीं जानता हुआ उनसे प्रार्थना किया करता है ।।११६॥ इतने पर भी यदि वे स्त्रियां उसे नहीं चाहती हैं, तो वह उनकी सैकड़ों खुशामदें करता है। फिर भी उनसे भर्त्सना किये जाने पर विलक्ष अर्थात् लक्ष्य-भ्रष्ट हुआ वह अपने आपको झूरता रहता है॥११७॥ यदि वह लम्पटी नहीं चाहनेवाली किसी पर-महिलाको जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है, तो वैसी दशानें वह उसमें क्या सुख पाता है ? प्रत्युत दुःखको ही पाता है ॥११८॥यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शीलको नाश करके उपरोधके वशसे कामी पुरुषके पास स्वयं उपस्थित भी हो जाय, और अपने आपको सौंप भी देवे ॥११९॥ तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुलके भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्तमें भय-भीत होनेसे वहां पर क्या सुख पा सकता है ? ॥१२०॥ वहां पर कुछ भी जरा-सा शब्द सुनकर सहसा थर-थर कांपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भय-भीत हो चारों दिशाओंको देखता है ॥१२१॥ इसपर भी यदि कोई देख लेता है तो वह बांधकर राज-दरबारमें ले जाया जाता है और वहांपर वह चोरसे भी अधिक दंडको पाता है ॥१२२॥ मोहकी विडम्बनाको देखो कि परस्त्री-मोहसे मोहित हुए खल लोग इस प्रकारके दोषों को प्रत्यक्ष देखकर भी अपने चित्तमें परायी स्त्रीकी अभिलाषा करते है ॥१२३॥ परस्त्री-लम्पटी परलोकमें इस संसार-समुद्रके भीतर अनन्त दुःखको पाता है। इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियोंको मन वचन कायसे त्याग करना चाहिये ॥१२४॥ सप्तव्यसनदोष-वर्णन रज्जन्भंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो। पत्तो तहावमाणं जूएग जुहिटिलो राया॥१२५|| जूआ खेलनेसे युधिष्ठिर राजा राज्यसे भ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वनवासमें रहे तथा अपमानको प्राप्त हुए ॥१२५॥ उज्जाणम्मि रमंता तिसाभिभूया जल त्तिणाऊण । पिबिऊण जुण्यामज्जं गहा ते जादवा तेण ॥१२६॥ उद्यानमें क्रीडा करते हुए प्याससे पीड़ित होकर यादवोंने पुरानी शराबको 'यह जल है' ऐसा जानकर पिया क्षौर उसीसे वे नष्ट हो गये ॥१२६॥ १. ब. तो।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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