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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार रस्सियोंसे बांधकर, मोरबंधसे अर्थात् कमरकी ओर हाथ बाँधकर पकड़ लेते है ॥१०६॥ और फिर उसे टिंटा अर्थात् जुआखाने या गलियोंमें घुमाते है और गधेकी पीठ पर चढाकर 'यह चोर है' ऐसा लोगोंके बीचमें घोषित कर उसकी बदनामी फैलाते हैं । ॥१०७।। और भी जो कोई मनुष्य दूसरेका धन हरता है, वह इस प्रकारके फलको पाता है, ऐसा कहकर पुनः उसे तुरन्त नगरके बाहिर ले जाते है ॥१०८। वहाँ ले जाकर खलजन उसकी आंखें निकाल लेते हैं, अथवा हाथ-पैर काट डालते है, अथवा जीता हुआ ही उसे शूलीपर चढ़ा देते हैं ॥१०९॥इस प्रकारके इहलौकिक दुष्फलोंको देखते हुए भी लोग चोरीसे पराये धनको ग्रहण करते हैं और अपने हितको कुछ भी नहीं समझते हैं, यह बड़े आश्चर्यकी बात है। हे भव्यो, मोहके माहात्म्यको देखो ॥११०॥ परलोकमें भी चोर चतुर्गतिरूप संसार-सागरमें निमग्न होता हुआ अनन्त दुःखको पाता है, इसलिए चोरीका त्याग करना चाहिए ॥१११॥ परदारादोष-वर्णन दळूण परकलत्तं पिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं । ण य कि पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ॥१२॥ णिस्ससइ रुयइ गायइ णिययसिर हणइ महियले पडइ । परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेइ ॥११३॥ चिंतेइ मं किमिच्छइण वेइ सा केण वा उवाएण । 'अण्णेमि' कहमि कस्स विण वेत्ति चिंताउरो सददं ॥११॥ रण य कत्थ वि कुणइ रइं मिट्ट पि य भोयर्ण ण भुंजेइ । णि पि अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो ॥११५॥ लज्जाकुलमज्जार्य छंडिऊण मज्जाइभोयणं किच्चा । परमहिलाणं चित्तं अमुणंतो पत्थणं कुणइ ११६॥ णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि । णिब्भच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो ॥११७॥ अह मुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बला धरेऊणं । किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ॥११८॥ अह कावि पावबहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं। सयमेव पच्छियानो' उवरोहवसेण अप्पाणं ॥११९।। जइ देइ तह वि तत्थ सुरणहर-खंडदेउलयमज्झम्मि । सञ्चित्ते भयभीश्रो सोक्खं किं तत्थ पाउणइ ॥१२०॥ सोऊण किं पि सह सहसा परिवेवमाणसवंगो । ल्हुक्का पलाइ पखलइ चउहिसं णियह भयभीत्रो ॥१२॥ जइ पुण केण वि दीसह णिज्जइ तो बंधिऊण गिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउगइ सविसेसं ॥१२२॥ पेच्छह मोह विडियो लोगो दट्टण एरिसं दोसं । पच्चक्खं तह वि खलो परिस्थिमहिलसदि दुच्चित्तो ॥१२३॥ परलोयम्मि अर्णतं दुक्खं पाउणइ इहभवसमुद्दम्मि। . परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ॥१२॥ १ब, अलभमाणो। २ इ. -कुलकम्म, म. ब.ध. -कुलक्कम । ३ झ. सयमेवं । ४ ध, प्रस्थिता। ५२. मज्नयारम्मि । ६झ.म, भयभीदो। ७. ब. भो चित्तं ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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