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________________ गुरु-मित्तं समविट्ठो ॥१३॥ लेण हरइ चौर्यदोष-वर्णन पापको शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकारके खेलनेसे प्राप्त होता है ॥९९॥ उस शिकार खेलनेके पापसे यह जीव संसारमें अनन्त दुःखको प्राप्त होता है। इसलिए देशविरत श्रावकको शिकारका त्याग करना चाहिए ॥१०॥ चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ। पाउणइ जायणाश्रो ण कयावि सुहं पलोएइ ॥१०॥ हरिऊण परस्स धणं चोरो परिवेवमाणसव्वंगो। चइऊण णिययगेहं' धावइ उपहेण संतत्तो ॥१२॥ किं केण वि दिट्ठो हंण वेत्ति हियएण धगधगतेण । हुक्का पलाइ पखलइ णि ण लहेइ भयविट्ठो ॥१०३॥ ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तवस्सि वा। पबलेण हरइ छलेण किंचिएणं किंपि जं तेसिं ॥१०॥ लज्जा तहाभिमाणं जस-सीलविणासमादणासंच। परलोयभयं चोरो अगणंतो साहस कुणइ ॥१०५॥ हरमाणो परदवं दठ्ठणारक्खिएहिं तो सहसा । रज्जूहिं बधिऊणं घिप्पइ सो मोरबंधेण ॥१०६॥ हिंडाविज्जइ टिंटे रत्थासु चढाविऊण खरपुटिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो त्ति जणस्स मज्झम्मि ॥१०७॥ अण्णो वि परस्स धणं जो हरहसो एरिसं फलं लहइ । एवं भणिऊण पुणो णिज्जइ पुर-बाहिरे तुरियं ॥१०॥ णेत्तद्धारं अह पाणि-पायगहणं णिसुंभणं अहवा। जीवंतस्स वि सूलावारोहणं कीरइ खलेहिं ॥१०९।। एवं पिच्छंता वि हु परदव्वं चोरियाइ गेण्हति । ण मुणंति किं पि सहियं पेच्छह हो मोह माहप्पं ॥११०॥ परलोए वि य चोरो चउगइ-संसार-सायर-निमण्णो । पावइ दुक्खमणंतं तेयं परिवज्जए तम्हा ॥११॥ पराये द्रव्यको हरनेवाला, अर्थात् चोरी करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में असाता-बहुल, अर्थात् प्रचुर दुःखोंसे भरी हुई अनेकों यातनाओंको पाता है और कभी भी सुखको नहीं देखता है ॥१०१॥ पराये धनको हर कर भय-भीत हुआ चोर थर-थर कांपता है और अपने घरको छोड़कर संतप्त होता हुआ वह उत्पथ अर्थात् कुमार्गसे इधर-उधर भागता फिरता है ॥१०२॥ क्या किसीने मुझे देखा है, अथवा नहीं देखा है, इस प्रकार धक्-धक् करते हुए हृदयसे कभी वह चोर लुकता-छिपता है, कभी कही भागता है और, इधर-उघर गिरता है तथा भयाविष्ट अर्थात् भयभीत होनेसे नींद नहीं ले पाता है ॥१०३॥ चोर अपने माता, पिता, गुरु, मित्र, स्वामी और तपस्वीको भी कुछ नहीं गिनता है ; प्रत्युत जो कुछ भी उनके पास होता है, उसे भी बलात् या छलसे हर लेता है ॥१०४॥ चोर लज्जा, अभिमान, यश और शीलके विनाशको, आत्माके विनाशको और परलोकके भयको नहीं गिनता हुआ चोरी करने का साहस करता है ॥१०५॥ चोरको पराया द्रव्य हरते हुए देखकर आरक्षक अर्थात् पहरेदार कोटपाल आदिक ब. णिययप्रगेहं । २झ बसंत्तहो। ३ म.पलायमाणो। झ. भयघत्थो, ब. भयवच्छो । ५ भ. ब. पच्चेलिउ । ६ झ. किं घण, व. किं वर्ण। ७ . झ हरेइ । ८ ब. खिलेहि । ९ ब. मोहस्स। १२
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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