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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अत्तागमतच्चाणं जं सदहणं सुणिम्मलं होइ । संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयन्वं ॥६॥ आप्त (सत्यार्थ देव) आगम ( शास्त्र) और तत्त्वोंका शंकादि ( पच्चीस ) दोष रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए || ६ || दोसविमुक्st yoवापरदोसवज्जियं वयणं । तच्चाई जीवदव्वाई' याई समयम्हि णेयाणि ॥७॥ ७९ आगे कहे जानेवाले सर्व दोषोंसे विमुक्त पुरुषको आप्त कहते है । पूर्वापर दोपसे रहित (आप्तके) वचनको आगम कहते है और जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, इन्हें समय अर्थात् परमागमसे जानना चाहिए ||७|| - तहा' भय-दोसो राम्रो मोहो जरा रुजा चिंता । मिच्चू खेश्रो सेश्रो अरइ मत्रो विम्हओ जम्मं ॥ ८ ॥ ाि तहा विसा दोसा एएहिं वज्जिओ अत्ता । वयणं तस्स पमाणं 'संतस्थपरूवयं जम्हा ||९|| ,,, द्वेष, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, खेद, स्वेदे (पसीना ), अरति, मद, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद, ये अट्ठारह दोप कहलाते है, जो आत्मा इन दोषों से रहित है, वही आप्त कहलाता है । तथा उसी आप्तके वचन प्रमाण है, क्योंकि वे विद्यमान अर्थके प्ररूपक है ॥८- ९॥ जीवाजीवासव-बध-संवरो णिज्जरा एयाई सत्त तच्चाई सद्द हंतस्स' तहा मोक्खो । सम्मतं ॥ १० ॥ जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व कहलाते है और उनका श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है ॥ १० ॥ जीव-वर्णन सिद्धा संसारत्था दुविहा जीवा जिणेहिं पण्णत्ता । सरीरा णंतच उद्वय' रिण्या शिवुदा सिद्धा ||११|| सिद्ध और संसारी, ये दो प्रकारके जीव जिनेन्द्र भगवान्ने कहे हैं । जो शरीर - रहित हैं, अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से संयुक्त है तथा जन्म-मरणादिकसे निवृत्त हैं, उन्हें सिद्ध जीव जानना चाहिए ॥११॥ संसारत्था दुविहा थावर - तसभेयश्री मुणेयव्वा । पंचविह थावरा खिदिजलग्गिवाऊ वण्य्फइणो ॥१२॥ स्थावर और सके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ॥१२॥ पज्जन्तापज्जता बायर - सुहुमा णिगोय णिच्चियरा । पत्तेय - 'पइट्ठियरा थावरकाया धणेयविहा ॥१३॥ पर्याप्त - अपर्याप्त, बादर - सूक्ष्म, नित्यनिगोद- इतरनिगोद, प्रतिष्ठितप्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक भेदसे स्थावरकायिक जीव अनेक प्रकारके होते हैं ॥ १३ ॥ १ ध. दिवाई । २ घ. तम्हा । ३ द. मच्चु सेोखेो । ४ ध. सुसत्य । ५ ध. सद्वहणं । ६ धट्ठयणिया । ७ घ. भेददो झ, ध. पर्याट्ठयरा ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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