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________________ अजीवतत्त्व-वर्णन वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयो तसा चउन्विहा मुणेयव्वा । पज्जत्तियरा सरिणयरमेयश्रो हुँति बहुभेया ॥१४॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे त्रसकायिक जीव चार प्रकारके जानना चाहिए। ये ही त्रस जीव पर्याप्त-अपर्याप्त और संज्ञी-असंज्ञी आदिक प्रभेदोंसे अनेक प्रकारके होते हैं ॥१४॥ श्राउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवनोग-पाण-सण्णाहिं। णाऊण जीवदव्वं सद्दहणं होइ कायब्वं ॥१५॥ आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, उपयोग, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीवद्रव्यको जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिए ॥१५॥ (विशेष अर्थके लिए परिशिष्ट देखिये) अजीवतत्त्व-वर्णन दुविहा अजीवकाया उ रूविणो अरूविणो मुणेयव्वा । खंधा देस-पएसा अविभागी रूविणो चदुधा ॥१६॥ संयलं मुणेहि खधं श्रद्धं देसो पएसमद्धद्धं । परमाणू अधिभागी पुग्गलदव्वं जिणुहिटळं ॥१७॥ अजीवद्रव्यको रूपी और अरूपीके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए । इनमें रूपी अजीवद्रव्य स्कंध, देश, प्रदेश और अविभागीके भेदसे चार प्रकारका होता है । सकल पुद्गलद्रव्यको स्कंध, स्कंधके आधे भागको देश, आधेके आधेको अर्थात् देशके आधेको प्रदेश और अविभागी अंशको परमाणु जानना चाहिए, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ॥१६-१७॥ पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय-कम्म-परमाणू । अइथूलथूलथूलं सुहुमं सुहुमं च अइसुहम ॥१८॥ अतिस्थूल (बादर-बादर), स्थूल (वादर), स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म, इस प्रकार पृथिवी आदिकके छः भेद होते हैं । (इन छहोंके दृष्टान्त इस प्रकार हैं--पृथिवी अतिस्थूल पुद्गल है । जल स्थूल है । छाया स्थूल-सूक्ष्म है । चार इन्द्रियोंके विषय अर्थात् स्पर्श, रस, गंध और शब्द सूक्ष्म-स्थूल है। कर्म सूक्ष्म है और परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है) ॥१८॥ , चउविहमरूविदव्वं धमाधम्मवराणि कालो य । गइ-ठाणुग्गहणलक्खणाणि तह वट्टणगुणो य ॥१९॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार प्रकारके अरूपी अजीवद्रव्य हैं। इनमें आदिके तीन क्रमश. गतिलक्षण, स्थितिलक्षण और अवगाहनलक्षण वाले हैं तथा काल वर्तनालक्षण है ॥१९॥ १८. प्रोय। २ ध. रूविणोऽरूविणो। ३. द. घ. मुणेहि । ४ चकारात् 'सुहमथूल' ग्राह्यम् । ५ मुद्रित पुस्तकमें इस गाथाके स्थानपर निम्न दो गाथाएं पाई जाती है अइथूलथूलथूलं यूलं सहुमं च सहुमथूलं च । सहमं च सहम सहुमं धराइयं होइ छब्भयं ॥१८॥ पुढवी जलं च छाया चरिदियविसय कम्मपरमाणू । छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिंदेहिं ॥१६॥ ये दोनों गाथाएं गो० जीवकांडमें क्रमशः ६०२ और ६०१ नं० पर कुछ शब्दभेदके साथ पाई जाती है। ६ म. घ. वत्तण।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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