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________________ सिरि वसुणंदि पाइरियविरइयं उवासयज्झयणं वकाचार सुरवइतिरीडमणिकिरणवारिधाराहिसितपयकमलं'। वरसयलविमलकेवलपयासियासेसतच्चत्थं ॥१॥ सायारो णायारो भवियाणं जेण देसिनो धम्मो। णमिऊण तं जिणिंद सावयधम्मं परूवेमो ॥२॥ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी किरणरूपी जलधारासे जिनके चरण-कमल अभिषिक्त हैं, जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञानके द्वारा समस्त तत्त्वार्थको प्रकाशित करनेवाले हैं और जिन्होंने भव्य जीवोंके लिए श्रावकधर्म और मुनिधर्मका उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके हम (वसुनन्दि) श्रावकधर्मका प्ररूपण करते हैं ॥१-२॥ विउलगिरि पब्बए णं इंदभूणा सेणियस्स जह सिट्ठ । तह गुरुपरिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह ॥३॥ विपुलाचल पर्वतपर (भगवान् महावीरके समवसरणमें) इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरने विम्बसार नामक श्रेणिक महाराजको जिस प्रकारसे श्रावकधर्मका उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरु-परम्परासे प्राप्त वक्ष्यमाण श्रावकधर्मको, हे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो ॥३॥ दसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राई' भत्ते य। बंभारंभ - परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ट-देसविरयम्मि ॥४॥देशविरति नामक पंचम गुणस्थानमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, ये ग्यारह स्थान (प्रतिमा, कक्षा या श्रेणी-विभाग) होते हैं ॥४॥ एथारस ठाणाई सम्मत्तविवज्जियस्स जीवस्स । जम्हा ण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि ॥५॥ उपयुक्त ग्यारह स्थान यतः (चूंकि) सम्यक्त्वसे रहित जीवके नहीं होते हैं, अतः (इसलिए) में सम्यक्त्वका वर्णन करता हूं, सो हे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो ॥५॥ १ध. जुमलं । २ द. जिणेण । ३ २. व. इरि । ४ , घ, राय ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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