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________________ ७० वसुनन्दि-श्रावकाचार १७७-पुनः ध्यानारूढ़ होकर अपूर्वकरण आदि गुणस्थान चढता हुआ कर्मोकी स्थिति• खंडन, अनुभाग खंडन आदि करता और कर्म प्रकृतियोंको क्षपाता हुआ चार घातिया कर्मोका क्षय करके केवल ज्ञानको प्राप्त करता है ५१४-५२५ १७८-वे केवली भगवान् नवकेवललब्धिसे सम्पन्न होकर अपनी आयु प्रमाण धर्मोपदेश देते हुए भूमण्डलपर विहार करते है .. ५२६-५२८ १७६-पुन. जिनके आयुकर्म-सदृश शेष कर्मोकी स्थिति होती है, वे समुद्घात किये विना ही। निर्वाणको प्राप्त होते है ... ... ५२८-५२६ १८०-शेष केवली समुद्धात करते हुए ही निर्वाणको प्राप्त होते है ५२६ १८१-केवलि समुद्धात किसके होता है और किसके नही? १८२-केवलि समुद्धातके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, इन चार अवस्थाओंका वर्णन ५३१-५३२ १८३-योगनिरोध कर अयोगिकेवली होनेका वर्णन ... ५३३-५३४ १८४-अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमे बहत्तर और चरम समयमें तेरह प्रकृतियोंके क्षयका और लोकान पर विराजमान होनेका वर्णन ... ५३५-५३६ १८५-सिद्धोके आठ गुणोंका और उनके अनुपमका सुखका वर्णन ५३७-५३८ १८६-श्रावकव्रतोंका फल तीसरे, पाँचवें या सातवे आठवें भवमे निर्वाण-प्राप्ति है ५३६ १८७-प्रन्थकारकी प्रशस्ति ... ५४०-५४७ ५३० भा
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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