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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रज वा तथाविधम् । यादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसधर्मणाम् ॥२४॥ ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयगृहाश्रमः । विरज्यैनं जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥२५॥ पुत्रः पुपूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः । य उपस्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥२६॥ तदिदं मे धनं धर्म्य पोष्यमप्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदत्तिर्हि परं पथ्या शिवार्थिनाम् ॥ २७ ॥ विदीर्णमोहशार्दूलपुनरुत्थानशकिनाम् । त्यागक्रमोऽयं गृहिणां शक्त्याऽऽरम्भो हि सिद्धिकृत् ॥२८॥ एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं मोहाभिभवहानये। किञ्चित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन् सुधीः ॥२९॥-सागारधर्मामृत अ०७ अर्थात्-जब क्रमशः ऊपर चढ़ते हुए श्रावकके हृदयमें यह भावना प्रवाहित होने लगे कि ये स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी जन वा धनादिक न मेरे हैं और न मैं इनका हूँ। हम सब तो नदी-नाव संयोगसे इस भवमे एकत्रित हो गये हैं और इसे छोड़ते ही सब अपने-अपने मार्ग पर चल देगे, तब वह परिग्रहको छोड़ता है और उस समय जाति-बिरादरीके मुखिया जनोंके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र या उसके अभावमै गोत्रके किसी उत्तराधिकारी व्यक्तिको बुलाकर कहता है कि हे तात, हे वत्स, अाज तक मैंने इस गृहस्थाश्रमका भलीभाँति पालन किया । अब मै इस संसार, देह और भोगोंसे उदास होकर इसे छोड़ना चाहता हूँ, अतएव तुम हमारे इस पदके धारण करनेके योग्य हो । पुत्रका पुत्रपना यही है कि जो अपने आत्महित करनेके इच्छुक पिताके कल्याण-मार्गमें सहायक हो, जैसे कि केशव अपने पिता सुविधिके हुए। (इसकी कथा श्रादिपुराण से जानना चाहिए।) जो पुत्र पिताके कल्याण-मार्गमे सहायक नहीं बनता, वह पुत्र नहीं, शत्रु है । अतएव तुम मेरे इस सब धनको, पोष्यवर्गको और धर्म्य कार्योंको संभालो। यह सकलदत्ति है जो कि शिवार्थी जनोंके लिए परम पथ्य मानी गई है। जिन्होंने मोहरूप शार्दूलको विदीर्ण कर दिया है, उसके पुनरुत्थानसे शंकित गृहस्थोंको त्यागका यही क्रम बताया गया है, क्योंकि शक्त्यनुसार त्याग ही सिद्धिकारक होता है। इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करके मोहको दूर करनेके लिए उदासीनताकी भावना करता हुआ वह श्रावक कुछ काल तक घरमें रहे। उक्त प्रकारसे जब श्रावकने नवीं प्रतिमा आकर 'स्व' कहे जानेवाले अपने सर्वस्वका त्याग कर दिया, तब वह बड़ेसे बड़ा दानी या अतिथिसंविभागी सिद्ध हुआ। क्योंकि सभी दानोंमें सकलदत्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। सकलदत्ति कर चुकनेपर वह श्रावक स्वयं अतिथि बननेके लिए अग्रेसर होता है और एक कदम आगे बढ़कर गृहस्थाश्रमके कार्योंमें भी अनुमति देनेका परित्याग कर देता है। तत्पश्चात् एक सीढ़ी और आगे बढ़कर स्वयं अतिथि बन जाता है और घर-द्वारको छोड़कर मुनिवनमें रहकर मुनि बननेकी ही शोधमें रहने लगता है। इस प्रकार दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाका अाधार विधि-निषेधके रूपमें अतिथि-सविभाग व्रत सिद्ध होता है। १७-प्रतिमाओंका वर्गीकरण श्रावक किस प्रकार अपने व्रतोंका उत्तरोत्तर विकास करता है, यह बात 'प्रतिमाओंका आधार' शीर्षकमैं बतलाई जा चुकी है। प्राचार्योंने इन ग्यारह प्रतिमा-धारियोंको तीन भागोंमे विभक्त किया है:-गृहस्थ, वर्णी या ब्रह्मचारी और भिक्षुक । श्रादिके छह प्रतिमाधारियोंकी गृहस्थ, सातवी, आठवीं और नवीं प्रतिमा १-वर्णिनखयो मध्याः।-सागारध० अ० ३ श्लो० ३,
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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