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________________ प्रतिमाओंका वर्गीकरण धारीको वर्णी और अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंकी भिक्षुक संज्ञा दी गई है। कुछ प्राचार्योंने इनके क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक ऐसे नाम भी दिये हैं, जो कि उक्त अर्थके ही पोषक हैं। यद्यपि स्वामिकार्तिकेयने इन तीनोंमैसे किसी भी नामको नहीं कहा है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमे उन्होंने जो 'भिक्खायरणेण' पद दिया है, उससे 'भिक्षुक' इस नामका समर्थन अवश्य होता है। श्राचार्य समन्तभद्रने भी उक्त नामोंका कोई उल्लेख नहीं किया है, तथापि ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपमें जो 'भैक्ष्याशनः, और 'उत्कृष्टः ये दो पद दिये हैं, उनसे 'भिक्षुक' और 'उत्तम' नामोंकी पुष्टि अवश्य होती है, बल्कि 'उत्तम और उत्कृष्ठ पद तो एकार्थक ही हैं। श्रादिके छह प्रतिमाधारी श्रावक यतः स्त्री-सुख भोगते हुए घरमे रहते हैं, अतः उन्हें 'गृहस्थ' संज्ञा स्वतः प्राप्त है। यद्यपि समन्तभद्रके मतसे श्रावक दसवी प्रतिमा तक अपने घरमे ही रहता है, पर यहाँ 'गृहिणी गृहमाहुर्न कुड्यकटसंहतिम्' की नीतिके अनुसार स्त्रीको ही गृह संज्ञा प्राप्त है और उसके साथ रहते हुए ही वह गृहस्थ संज्ञाका पात्र है। यतः प्रतिमाधारियोंमें प्रारम्भिक छह प्रतिमाधारक स्त्री-भोगी होनेके कारण गृहस्थ हैं, अतः सबसे छोटे भी हुए, इसलिए उन्हें जघन्य श्रावक कहा गया है। पारिशेष-न्यायसे मध्यवर्ती प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक सिद्ध होते है। पर दसवीं प्रतिमाधारीको मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है, इसका कारण यह है कि वह घरमें रहते हुए भी नहीं रहने जैसा है, क्योंकि वह गृहस्थीके किसी भी कार्यमें अनुमति तक भी नही देता है। पर दसवी प्रतिमाधारीको भिक्षावृत्तिसे भोजन न करते हुए भी "भिक्षुक' कैसे माना जाय, यह एक प्रश्न विचारणीय अवश्य रह जाता है। संभव है, भिक्षुकके समीप होनेसे उसे भी भिक्षुक कहा हो, जैसे चरम भवके समीपवर्ती अनुत्तरविमानवासी देवोको 'द्विचरम' कह दिया जाता है । सातवींसे लेकर आगेके सभी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी हैं, जब उनमेंसे अन्तिम दो को भिक्षुक संज्ञा दे दी गई, तब मध्यवर्ती तीन (सातवीं, आठवीं और नवी) प्रतिमाधारियोंकी ब्रह्मचारी संज्ञा भी अन्यथा सिद्ध है। पर ब्रह्मचारीको वर्णी क्यो कहा जाने लगा, यह एक प्रश्न यहाँ श्राकर उपस्थित होता है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, सोमदेव और जिनसेनने तथा इनके पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यने 'वर्णी' नामका विधान जैन परम्परामे नहीं किया है । परन्तु उक्त तीन प्रतिमा-धारियोंको पं० श्राशाधरजीने ही सर्वप्रथम 'वर्णिनस्त्रयो मध्याः' कहकर वर्णी पदसे निर्देश किया है और उक्त श्लोककी स्वोपज्ञटीकामे 'वर्णिनो ब्रह्मचारिणः' लिखा है, जिससे यही अर्थ निकलता है कि । वर्णीपद ब्रह्मचारीका वाचक है, पर 'वर्णी' पदका क्या अर्थ है, इस बातपर उन्होंने कुछ प्रकाश नहीं डाला है। सोमदेवने ब्रह्मके कामविनिग्रह, दया और ज्ञान ऐसे तीन अर्थ किये हैं, मेरे ख्यालसे स्त्रीसेवनत्यागको अपेक्षा सातवीं प्रतिमाधारीको, दयार्द्र होकर पापारम छोड़नेकी अपेक्षा आठवीं प्रतिमाधारीको और निरन्तर स्वाध्यायमें प्रवृत्त होनेकी अपेक्षा नवी प्रतिमाधारोको ब्रह्मचारी कहा गया होगा । १ षडन गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।-यश० श्रा० ९, २ श्राद्यास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः। शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥-सागारध० अ०३, श्लो० ३ टिप्पणी ३ जो णवकोडिविसुद्धं 'भिक्खायरणेण' भुजदे भोज । जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहारविरो सो॥.३९७ ॥-स्वामिकात्तिक - गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे प्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७॥-रत्नक० ५ ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः॥-यश० श्रा०८
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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