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________________ श्रावक प्रतिमाओका आधार त्यागी हुअा है, और उसके पूर्व आठवी प्रतिमामे कृतसे त्यागी हुआ है। यह बात विना कहे ही स्वतः उक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकला कि श्रावक भोग-उपभोगके साधक प्रारम्भका कृतसे त्यागकर अाठवीं प्रतिमाधारी, कारितसे भी त्याग करने पर नवीं प्रतिमाका धारी और अनुमतिसे भी त्याग करनेपर दशवी प्रतिमाका धारी बन जाता है । पर स्वामिकार्तिकेय अष्टम प्रतिमाधारीके लिए कृत, कारित और अनु. मोदनासे प्रारम्भका त्याग आवश्यक बतलाते हैं। यहाँ इतनी बात विशेष ज्ञातव्य है कि ज्यों-ज्यों श्रावक ऊपर चढ़ता नाता है, त्यो-त्यो अपने बाह्य परिग्रहोंको भी घटाता जाता है। आठवी प्रतिमामें जब उसने नवीन धन उपार्जनका त्याग कर दिया तो उससे एक सीढ़ी ऊपर चढ़ते ही संचित धन, धान्यादि बाह्य दशों प्रकारके परिग्रहसे भी ममत्व छोड़कर उनका परित्याग करता है, केवल वस्त्रादि अत्यन्त आवश्यक पदार्थों को रखता है। और इस प्रकार वह परिग्रह-त्याग नामक नवी प्रतिमाका धारी बन जाता है। यह सन्तोषकी परम मूर्ति, निर्ममत्वमे रत और परिग्रहसे विरत हो जाता है । दशवी अनुमतित्याग प्रतिमा है। इसमें श्राकर श्रावक व्यापारादि प्रारम्भके विषयमें, धन-धान्यादि परिग्रहके विषयमे और इहलोक सम्बन्धी विवाह आदि किसी भी लौकिक कार्यमे अनुमति नहीं देता है। वह धरमे रहते हुए भी घरके इष्ट-अनिष्ट कार्योंमे राग-द्वेष नहीं करता है, और जलमे कमलके समान सर्व गृह कार्योंसे अलिप्त रहना है। एक वस्त्र मात्रके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता। अतिथि या मेहमान के समान उदासीन रूपसे घरमे रहता है। घर वालोंके द्वारा भोजनके लिए बुलानेपर भोजन करने चला जाता है। इस प्रतिमाका धारी भोग सामग्रीमे से केवल भोजनको, भले ही वह उसके निमित्त बनाया गया हो, स्वयं अनुमोदना न करके ग्रहण करता है और परिमित बस्त्रके धारण करने तथा उदासीन रूपसे एक कमरेमें रहने के अतिरिक्त और सर्व उपभोग सामग्रीका भी परित्यागी हो जाता है। इस प्रकार वह घरमे रहते हुए भी भोगविरति और उपभोगविरतिकी चरम सीमापर पहुँच जाता है। यहाँ इतना स्पष्ट कर देना श्रावश्यक है कि दशवी प्रतिमाका धारी उद्दिष्ट अर्थात् अपने निमित्त बने हुए भोजन और वस्त्र के अतिरिक्त समस्त भोग और उपभोग सामग्रीका सर्वथा परित्यागी हो जाता है। जब श्रावकको घरमें रहना भी निर्विकल्पता और निराकुलताका बाधक प्रतीत होता है, तब वह पूर्ण निर्विकल्प निजानन्दकी प्राप्तिके लिए घरका भी परित्याग कर वनमे जाता है और निर्ग्रन्थ गुरुओंके पास व्रतोको ग्रहण कर भिक्षावृत्तिसे आहार करता हुआ तथा रात-दिन स्वाध्याय और तपस्या करता हुआ जीवन यापन करने लगता है। वह इस अवस्थामें अपने निमित्त बने हुए अाहार और वस्त्र श्रादिको भी ग्रहण नहीं करता है। अतः उद्दिष्ट भोगविरति और उद्दिष्ट उपभोगविरतिकी चरम सीमापर पहुंच जानेके कारण उद्दिष्ट-त्याग नामक ग्यारहवी प्रतिमाका धारक कहलाने लगता है। ___ इस प्रकार तीसरीसे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक सर्व प्रतिमाओंका आधार चार शिक्षाबत हैं, यह बात असदिग्ध रूपसे शास्त्राधार पर प्रमाणित हो जाती है। यदि तत्त्वार्थसूत्र-सम्मत शिक्षाव्रतोंको भी प्रतिमाश्रोका अाधार माना जावे, तो भी कोई आपत्ति नहीं है। पाँचवीं प्रतिमासे लेकर उपर्युक्त प्रकारसे भोग और उपभोगका क्रमशः परित्याग करते हुए जब श्रावक नवों प्रतिमामे पहुँचता है, तब वह अतिथि संविभागके उत्कृष्टरूप सकलदत्तिको करता है, जिसका विशद विवेचन पं० आशाधरजीने इस प्रकार किया है : स ग्रन्थविरतो यः प्राग्वतवानस्फुरद्धतिः । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ॥२३॥ १ उद्दिष्टविरतः स्वनिमित्तनिर्मिताहारग्रहणरहितः, स्वोद्दिष्टपिंडोपधिशयनबसनादेविरत उद्दिष्टविनिवृत्तः।-स्वामिकात्र्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३०६ टीका ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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