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________________ पूजन-विधान पूजनके समय जिनेन्द्र-प्रतिमाके अभिषेककी तैयारी करनेको प्रस्तावना' कहते हैं। जिस स्थानपर अहडिम्बको स्थापित कर अभिषेक करना है, उस स्थानकी शुद्धि करके जलादिकसे भरे हुए कलशोको चारो ओर कोणोमें स्थापन करना पुराकर्म कहलाता है। इन कलशोंके मध्यवर्ती स्थानमे रखे हुए सिहासन पर जिनबिम्बके स्थापन करनेको स्थापना कहते है। ये वही जिनेन्द्र हैं, यह वही सुमेरुगिरि है, यह वही सिंहासन है, यह वही साक्षात् क्षीरसागरका जल कलशोंमे भरा हुआ है, और मैं साक्षात् इन्द्र बनकर भगवान्का अभिषेक कर रहा हूँ', इस प्रकारकी कल्पना करके प्रतिमाके समीपस्थ होनेको सन्निधापन' कहते हैं । अर्हत्प्रतिमाकी श्रारती उतारना, जलादिकसे अभिषेक करना, अष्टद्रव्यसे अर्चा करना, स्तोत्र पढ़ना, चेंबर ढोरना, गीत, नृत्य आदिसे भगवद्-भक्ति करना यह पूजा नामका पाँचवां कर्तव्य है। जिनेन्द्र-बिम्बके पास स्थित होकर इष्ट प्रार्थना करना कि हे देव, सदा तेरे चरणोंमें मेरी भक्ति बनी रहे, सर्व प्राणियोंपर मैत्री भाव रहे, शास्त्रोंका अभ्यास हो, गुणी जनोंमे प्रमोद भाव हो, परोपकारमें मनोवृत्ति रहे, समाधिमरण हो, मेरे कर्मोंका क्षय और दुःखोका अन्त हो, इत्यादि प्रकारसे इष्ट प्रार्थना करनेको पूजाफल' कहा गया है। उक्त विवेचनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्राह्वानन, स्थापन और सन्निधीकरणका प्रार्षमार्ग यह था, पर उस मार्गके भूल जानेसे लोग आज-कल यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। तदाकार स्थापनाके अभावमे अतदाकार स्थापना की जाती है। अतदाकार स्थापनामें प्रस्तावना, पुरा १ यः श्रीजन्मपयोनिधिर्मनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो तेनेदं भुवन सनाथममरा यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मात्प्रादुरभूच्छू तिः सुकृतिनो यस्य प्रसादाज्जना यस्मिन्नष भवाश्रयो व्यतिकरस्तस्यारभे स्नापनाम् ॥ (इति प्रस्तावना) २ पाथः पूर्णान् कुम्भान् कोणेषु सुपल्लवप्रसूनार्चान् । दुग्धाब्धीनिव विदधे प्रवालमुक्तोल्वणांश्चतुरः॥ (इति पुराकम) ३. तीर्थोदकैर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवपुषि प्रतिकल्पितार्थे । लचमीश्र तागमनबीजविदर्भगर्ने संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ॥ (इति स्थापना) ४ सोऽय जिनः सुरगिरिननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न महोत्सवश्रीः ॥ (इति सन्निधापनम्) ५ अम्भश्चन्दनतन्दुलोद्गमहविर्दी पैः सधूपैः फलैरचित्वा त्रिजगद्गुरुं जिनपति स्नानोत्सवानन्तरम् । तं स्तौमि प्रजपामि चेतसि दधे कुर्वे श्रु ताराधनम्, त्रैलोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥ (इति पूजा) ६ प्राविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्वसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन ॥ धर्मेषु धर्मनिरतात्मसु धर्महेतोधर्मादवाप्तमहिमास्तु नृपोऽनुकूलः । नित्य जिनेन्द्रचरणार्चनपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमां श्रियमाप्नुवन्तु ॥ (इतिपूजाफलम् )-यशस्ति० प्रा०८
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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