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________________ ४० बसुनन्दि-श्रावकाचार कर्म आदि नहीं किये जाते; क्योकि जब प्रतिमा ही नहीं है, तो अभिषेक श्रादि किसका किया जायगा? अतः पवित्र पुष्प, पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, दिति, व्योम या हृदयमे अर्हन्त देवकी अतदाकार स्थापना करना चाहिए। वह अतदाकार स्थापना किस प्रकार करना चाहिए, इसका वर्णन श्राचार्य सोमदेवने इस प्रकार किया है : अहन्न तनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगीः साधुस्तदनु च पुरोऽपि गवगमवृत्तानि ॥ भूर्जे, फलके सिचये शिलातले सैकते क्षितौ व्योन्नि । हृदये चेति स्थाप्याः समयसमाचारवेदिभिर्नित्यम् ॥ -यशस्ति० प्रा०८ अर्थात्-भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तुके या हृदयके मध्य भागमे अर्हन्तको, उसके दक्षिणभागमे गणधरको, पश्चिम भागमें जिनवाणीको, उत्तरमें साधुको और पूर्वमें रत्नत्रयरूप धर्मको स्थापित करना चाहिए। यह रचना इस प्रकार होगी: - रत्नत्रय धर्म अर्हन्तदेव गणधर जिनवाणी इसके पश्चात् भावात्मक अष्टद्रव्यके द्वारा क्रमशः देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय धर्मका पूजन करे । तथा दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, पंचगुरुभक्ति, अहद्भक्ति, सिद्धभक्ति, प्राचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति करे । आचार्य सोमदेवने इन भक्तियों के स्वतंत्र पाठ दिये हैं । शान्तिभक्ति का पाठ इस प्रकार है: भवदुःखानलशान्तिधर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः। शिवशर्मास्त्रवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ॥ यह पाठ हमें वर्तमानमें प्रचलित शान्ति पाठकी याद दिला रहा है। उपर्युक्त तदाकार और अतदाकार पूजनके निरूपणका गंभीरतापूर्वक मनन करने पर स्पष्ठ प्रतीत होता है कि वर्तमानमें दोनों प्रकारकी पूजन-पद्धतियोंकी खिचड़ी पक रही है, लोग यथार्थ मार्गको बिलकुल भूल गये हैं। निष्कर्ष तदाकार पूजन द्रव्यात्मक और अतदाकार पूजन भावात्मक है। गृहस्थ सुविधानुसार दोनों कर सकता है। पर आ० वसुनन्दि इस हुंडावसर्पिणीकालमें अतदाकार स्थापनाका निषेध करते हैं। वे कहते हैं कि लोग यों ही कुलिंगियोंके यद्वा-तद्वा उपदेशसे मोहित हो रहे हैं, फिर यदि ऐसी दशामें अर्हन्मतानुयायी भी जिस किसी वस्तुमें अपने इष्ट देवकी स्थापना कर उसकी पूजा करने लगेंगे, तो साधारण लोगोसे विवेकी लोगोंमें कोई भेद न रह सकेगा । तथा सर्वसाधारणमें नाना प्रकारके सन्देह भी उत्पन्न होंगे। यद्यपि प्रा. वसुनन्दिकी अतदाकार स्थापना न करनेके विषयमें तर्क या दलील है तो युक्ति-संगत, पर हुंडावसर्पिणीका उल्लेख किस आधारपर कर दिया, यह कुछ समझ नहीं आया ? खासकर उस दशामें, जब कि उनके पूर्ववर्ती श्रा० सोमदेव बहुत विस्तारके साथ उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। फिर एक बात और विचारणीय है कि क्या पंचम कालका ही नाम हुंडावसपिणी है, या प्रारंभके चार कालोका नाम भी है। यदि उनका भी नाम है, तो क्या चतुर्थकालमें भी अतदाकार स्थापना नहीं की जाती थी? यह एक प्रश्न है, जिसपर कि विद्वानों द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है। १ देखो प्रस्तुत प्रन्यकी गाथा नं०३८५
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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