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________________ ३८ वसुनन्दि-श्रावकाचार १२-पूजन-विधान देवपूजनके विषयमे कुछ और स्पष्टीकरणकी आवश्यकता है, क्योकि सर्वसाधारण इसे प्रतिदिन करते हुए भी उसके वास्तविक रहस्यसे अनभिज्ञ हैं, यही कारण है कि वे यद्वा-तद्वा रूपसे करते हुए सर्वत्र देखे जाते है। यद्यपि इज्यानोका विस्तृत वर्णन सर्व प्रथम श्राचार्य जिनसेनने किया है, तथापि उन्होने उसकी कोई व्यवस्थित प्ररूपणा नहीं की है। जहाँ तक मेरा अध्ययन है, पूजनका व्यवस्थित एवं विस्तृत निरूपण सर्वप्रथम श्राचार्य सोमदेवने ही किया है । पूजनका उपक्रम देवपूजा करनेके लिए उद्यत व्यक्ति सर्व प्रथम अन्तःशुद्धि और बहिःशुद्धिको करे । चित्तकी चचलता, मनकी कुटिलता या हृदयकी अपवित्रता दूर करनेको अन्तःशुद्धि कहते हैं। दन्तधावन आदि करके निर्मल एवं प्रासुक जलसे स्नान कर धुले स्वच्छ शुद्ध वस्त्र धारण करनेको बहिःशुद्धि कहते हैं। पूजनका अर्थ और भेद जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, रत्नत्रय धर्म श्रादिकी अाराधना, उपासना या अर्चा करनेको पूजन कहते हैं। श्रा० वसुनन्दिने पूजनके छह भेद गिनाकर उनका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थमे किया है । ( देखो गाथा नं० ३८१ से ४६३ तक) छह भेदोमै एक स्थापना पूजा भी है। साक्षात् जिनेन्द्र देव या प्राचार्यादि गुरुजनोंके अभावमे उनकी स्थापना करके जो पूजन की जाती है उसे स्थापना पूजा कहते हैं । यह स्थापना दो प्रकारसे की जाती है, तदाकार रूपसे और अतदाकार रूपसे। जिनेन्द्रका जैसा शान्त वीतराग स्वरूप परमागममे बताया गया है, तदनुसार पाषाण, धातु आदि की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा-विधिसे उसमे अहन्तदेवकी कल्पना करनेको तदाकार स्थापना कहते हैं। इस प्रकारसे स्थापित मूर्तिको लक्ष्य करके, या केन्द्रबिन्दु बनाकर जो पूजा की जाती है, उसे तदाकार स्थापना पूजन कहते हैं । इस प्रकारकी पूजनके लिए प्राचार्य सोमदेवने प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल इन छह कर्तव्योंका करना श्रावयश्क बताया है। यथा प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥-यश० अ०८ १-अन्तःशुद्धिं बहिःशुद्धिं विदध्याद्देवतार्चनम् । आधा दौश्चित्यनिर्मोक्षादन्या स्नानायथाविधिः ॥ प्राप्लुतः संप्लुतः स्वान्तः शुचिवासी विभूषितः । मौन-संयमसम्पन्नः कुर्याद वार्चनाविधिम् ॥ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचिताननः । असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥-यशस्ति० प्रा०८ टिप्पणी-कितने ही लोग बिना दातुन किये ही पूजन करते हैं, उन्हे 'दन्तधावनशुद्धास्यः पद पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें बताया गया है कि मुखको दातुनसे शुद्ध करके भगवान्की पूजा करे । इस सम्बन्धमे इसी श्लोकके द्वारा एक और पुरानी प्रथा पर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि मुखपर वस्त्र बाँधकर भगवान्की पूजा करे। पुराने लोग दुपट्टेसे मुखको बाँधकर पूजन करते रहे हैं, बुन्देलखंडके कई स्थानों में यह प्रथा श्राज भी प्रचलित है। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोमैं भी मुख बाँधकर ही पूजा की जाती है। सोमदेवका 'मुखवासोचिताननः' पद हमें स्थानकवासी साधुओंकी मुँहपत्तीकी याद दिलाता है।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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