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________________ १५४ वसुनन्दि-श्रावकाचार 'यदि पैत्तिकी व्याधिर्वा, ग्रीष्मादि कालो वा, मरुस्थलादिर्देशो वा, पैत्तिकी प्रकृतिर्वा, अन्यदप्येवविधतुषापरीषहोद्रेकासहन-कारण वा भवेत्तदा गुर्वनुज्ञया पानीयमुपयोक्ष्येऽहमिति प्रत्याख्यान प्रतिपद्यतेत्यर्थ । -सागार० टीका। अर्थात--यदि पैत्तिक व्याधि हो, अथवा ग्रीष्म आदि काल हो, या मरुस्थल आदि शुष्क और गर्म देश हो, या पित्त प्रकृति हो, अथवा इसी प्रकारका अन्य कोई कारण हो, जिससे कि क्षपक प्यासकी परीवह न सह सके, तो वह गुरुकी आज्ञासे पानीको छोडकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करे। ४ व्रत-विधान व्रत विधान (गा० ३५३-३८१)--आ० वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमे ग्यारह प्रतिमाओके निरूपण करने के पश्चात् श्रावकके अन्य कर्तव्योको बतलाते हुए पचमी आदि कुछ व्रतोका भी विधान किया है और कहा है कि इन व्रतोके फलसे जीव देव और मनुष्योके इन्द्रिय-जनित सुख भोगकर अन्तमे मोक्ष पाता है । अन्तमें लिखा है कि व्रतोका यह उद्देश्य-मात्र वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य भी सूत्रोक्त व्रतोको अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिए। (गा० ३७८-३७६) तदनुसार यहाँ उनपर कुछ विशेष प्रकाश डाला जाता है। पंचमी विधान-इसे श्वेत पचमी व्रत भी कहते है । यह व्रत पाँच वर्ष और पॉच मास मे समाप्त होता है। आषाढ, कात्तिक या फाल्गुन इन तीन मासोमेसे किसी एक मासमे इस व्रतको प्रारम्भ करे। प्रतिमास शुक्लपक्षकी पचमीके दिन उपवास करे। लगातार ६५ मास तक उक्त तिथिमे उपवास करनेपर अर्थात् ६५ उपवास पूर्ण होने पर यह विधान समाप्त होता है । व्रतके दिन णमोकार मत्रका त्रिकाल जाप्य करना चाहिए। रोहिणी विधान-इसे अशोक रोहिणी व्रत भी कहते है। यह व्रत भी पाँच वर्ष और पाँच मासमे समाप्त होता है। इस व्रतमें प्रतिमास रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करना आवश्यक माना गया है। क्रियाकोषकार पं० किशन सिंहजी दो वर्ष और तीन मासमे ही इसकी पूर्णता बतलाते है। व्रतके दिन णमोकार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करना चाहिए । अश्विनी विधान-इस व्रतमे प्रतिमास अश्विनी नक्षत्रके दिन उपवास किया जाता है। लगातार सत्ताईस मास तक इसे करना पड़ता है। सौख्यसंपत्ति विधान---इस व्रतके वृहत्सुखसम्पत्ति, मध्यम सुख-सम्पत्ति और लघु सुख-सम्पत्ति ऐसे तीन भेद व्रत विधान-सग्रहमे पाये जाते है। आ० वसुनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमे वृहत्सुख-सम्पत्ति व्रतका विधान किया है। इस व्रत सब मिलाकर १२० उपवास किये जाते हैं। उनके करनेका क्रम यह है कि यह व्रत माससे प्रारम्भ किया जाय, उस मासके प्रतिपदा को एक उपवास करना चाहिए। तदनन्तर अगले मासकी दोनो दोयजोंके दिन दो उपवास करे । तदनन्तर अगले मासकी दो तीजे और उससे अगले मासकी एक तीज ऐसी तीन तीजोके दिन तीन उपवास करे। इस प्रकार आगे आनेवाली ४ चतुर्थियोंके दिन ४ उपवास करे । उससे आगे आनेवाली ५ पंचमियोंके दिन क्रमशः ५ उपवास करे। उपवासोंका क्रम इस प्रकार जानना चाहिए:१ एक प्रतिपदाका एक उपवास. २. दो द्वितीयाओंके दो उपवास । ३. तीन तृतीयाओके तीन उपवास । ४. चार चतुर्थियोंके चार उपवास । ५. पाँच पचमियोंके पॉच उपवास । ६ छह षष्ठियोंके छह उपवास । ७. सात सप्तमियोंके सात उपवास । ८ आठ अष्टमियोंके आठ उपवास । ६. नौ नवमियोंके नौ उपवास । १० दश दशमियोंके दश उपवास । ११. ग्यारह एकादशियोंके ग्यारह उपवास । १२. बारह द्वादशियोके बारह उपवास । १३. तेरह त्रयोदशियोंके तेरह उपवास । १४ चौदह चतुर्दशियोके चौदह उपवास । १५. पन्द्रह पूर्णिमा-अमावस्याओके पन्द्रह उपवास ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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