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________________ ३ सल्लेखना-विधान सल्लेखना या समाधिमरण (गाथा २७१-२७२)--आ० वसुनन्दिने सल्लेखनाका जो स्वरूप कहा है, वह स्वामी समन्तभद्र द्वारा रत्नकरण्डकमे प्रतिपादन किये गये स्वरूपसे भिन्न हैं। स्वामी समन्तभद्रने सल्लेखनाका जो स्वरूप बताया है उसमे उन्होने गहस्थ या मुनिकी अपेक्षा कोई भेद नही रखा है। बल्कि समाधिमरण करने वालेको सर्वप्रकारका परिग्रह छुडाकर और पचमहाव्रत स्वीकार कराकर विधिवत् मुनि बनानेका विधान किया है। उन्होने आहारको क्रमश घटाकर केवल पानपर निर्भर रखा और अन्तमे उसका भी त्याग करके यथाशक्ति उपवास करनेका विधान किया है। परन्तु आ० वसुनन्दि अपने प्रस्तुत ग्रन्थमें सल्लेखना करनेवालेके लिए एक वस्त्रके धारण करने और जलके ग्रहण करनेका विधान कर रहे है और इस प्रकार मुनिके समाधिमरणसे श्रावकके समाधिमरणमे एक विभिन्नता बतला रहे है। समाधिमरणके नाना भेदोका विस्तारसे प्ररूपण करनेवाले मूलाराधना ग्रन्थमें यद्यपि श्रावक और मुनिकी अपेक्षा समाधिमरणमें कोई भेद नही किया है, तथापि वहाँ भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरणके औत्सर्गिक और आपवादिक ऐसे दो भेद अवश्य किये गये है। जान पड़ता है कि उस आपवादिक लिगको ही आ० वसुनन्दिने श्रावकके लिए विधेय माना है। हालाँकि मूलाराधनाकारने विशिष्ट अवस्थामें ही अपवाद-लिगका विधान किया है, जिसे कि स्पष्ट करते हुए पं० आशाधरने सागारधर्मामृतमे भी लिखा है कि यदि कोई श्रीमान् महद्धिक एवं लज्जावान् हो और उसके कुटुम्बी मिथ्यात्वी हों, तो उसे सल्लेखना कालमे सर्वथा नग्न न करें। मूलाराधनाकार आदि सर्व आचार्योन सल्लेखना करनेवालेके क्रमशः चारो प्रकारके आहारका त्याग आवश्यक बताया है, पर आ० वसुनन्दि उसे तीन प्रकारके आहार-त्यागका ही विधान कर रहे है, यह एक दूसरी विशेषता वे गृहस्थके समाधिमरणमें बतला रहे है। ज्ञात होता है कि सल्लेखना करनेवालेकी व्याधि आदिके कारण शारीरिक निर्बलनाको दृष्टिमे रखकर ही उन्होंने ऐसा विधान किया है, जिसकी कि पुष्टि पं० आशाधरजीके द्वारा भी होती है। वे लिखते है व्याध्याद्यपेक्षयाऽम्भो वा समाध्यर्थ विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जहयात्तदप्यासन्नमृत्युक ॥६५॥ सागार० अ०८ ___ अर्थात्-व्याधि आदिके कारण कोई क्षपक यदि चारो प्रकारके आहारका त्याग करने और तृषापरीषह सहन करनेमे असमर्थ हो, तो वह जलको छोडकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग करे और जब अपनी मृत्यु निकट जाने तो उसका भी त्याग कर देवे । 'व्याध्याद्यपेक्षया' पदकी व्याख्या करते हुए वे लिखते है-- १ श्रावसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महढिो हिरिमं । मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंग ॥ -मूलारा० आ० २, गा० ७६ २ हृीमान्महद्धिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवः । सोऽविविक्त पद नाग्न्यं शस्तलिंगोऽपि नार्हति ॥३७॥-सागार० अ०८
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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