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________________ १ १ वसुनन्दि-श्रावकाचार वारवईए' विजाविञ्च किच्चा असंजदेणावि । तित्थयरणामपुरणं समजियं वासुदेवेण ॥३४९॥ द्वारावतीमें व्रत-संयमसे रहित असयत भी वासुदेव श्रीकृष्णने वैयावृत्त्य करके तीर्थकर नामक पुण्यप्रकृतिका उपार्जन किया ॥ ३४९ ॥ एवं णाऊण फलं विजावच्चस्स परमभत्तीए । णिच्छयजुत्तेण सया कायव्वं देसविरएण ॥३५०॥ इस प्रकार वैयावृत्त्यके फलको जानकर दढ निश्चय होकर परम भक्तिके साथ श्रावक को सदा वैयावृत्त्य करना चाहिए ॥ ३५० ।। कायक्लेशका वर्णन आयंबिल णिम्वियडी एयहाणं छठमाइखवणेहिं । जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयन्वो ॥३५१॥(१) आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, (एकाशन) चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास, षष्ठ भक्त अर्थात् वेला, अष्टमभक्त अर्थात् तेला आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है, उसे कायक्लेश जानना चाहिए ।। ३५१ ॥ मेहाविणरा एएण चेव बुज्झति बुद्धिविहवेण । ण य मंदबुद्धिणो तेण किं पि वोच्छामि सविसेसं ॥३५२॥ बुद्धिमान् मनुष्य तो इस सक्षिप्त कथनसे ही अपनी बुद्धिके वैभव द्वारा कायक्लेशके विस्तृत स्वरूपको समझ जाते है। किन्तु मन्दबुद्धि जन नही समझ पाते है, इसलिए कायक्लेश का कुछ विस्तृत स्वरूप कहूँगा ॥ ३५२ ॥ पंचमी व्रतका वर्णन आसाढ कत्तिए फरगुणे य सियपंचमीए गुरुमूले । गहिऊण विहिं विहिणा पुवं काऊण जिणपूजा ॥३५३॥ पडिमासमेक्कखमणेण जाव वासाणि पंच मासा य। अविच्छिण्णा' कायव्वा मुत्तिसुहं जायमाणेण ॥३५४॥ आषाढ़, कार्तिक या फाल्गुन मासमें शुक्ला पचमीके दिन पहले जिन-पूजनको करके पुनः गुरुके पाद-मूलमें विधिपूर्वक विधिको ग्रहण करके, अर्थात् उपवासका नियम लेकर, प्रतिमास एक क्षमणके द्वारा अर्थात् एक उपवास करके पाँच वर्ष और पाँच मास तक मुक्ति-सुखको चाहनेवाले श्रावकोंको अविच्छिन्न अर्थात् विना किसी नागाके लगातार यह पंचमीव्रत करना चाहिए ॥ ३५३-३५४ ।। अवसाणे पंच घडाविऊण पडिमानो जिणवरिंदाणं । तह पंच पोत्थयाणि य लिहाविऊणं ससत्तीए ॥३५५॥ तेसिं पइट्टयाले जं किं पि पइट्टजोग्गमुवयरणं । तं सव्वं कायव्वं पत्तेयं पंच पंच संखाए ॥३५६॥ व्रत पूर्ण हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान्की पांच प्रतिमाएँ बनवाकर, तथा पाँच पोथियों (शास्त्रों) को लिखाकर अपनी शक्तिके अनुसार उनकी प्रतिष्ठाके लिए जो कुछ भी प्रतिष्ठा १द्वारावत्याम् । २ ब. बुब्भंति । ध, जुज्झति । ३ प. पुज्जा। ध, अविछिण्णा । (१) प्राचाम्लं निर्विकृत्यैक भक्त-षष्टाष्टमादिकम् । यथाशक्तिव क्रियेत कायक्वशः स उच्यते ॥२०॥
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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