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________________ वैयावृत्त्य वर्णन ११७ नि.शंकित आदि और संवेग आदि जो मनोविषयक गुण पहले वर्णन किये गये है, वे सब गुण वैयावृत्त्य करनेवाले जीवके प्रकट होते है ॥३४१॥ वैयावृत्त्यको करनेवाले श्रावकके द्वारा देह, तप, नियम, संयम और शीलका समाधान, अभय दान तथा गति, मति और बल दिया जाता है ॥ ३४२ ॥ भावार्थ--साधु जन या श्रावक आदि जब रोग आदिसे पीड़ित होकर अपने व्रत, संयम आदिके पालनेमे असमर्थ हो जाते है, यहाँ तक कि पीड़ाकी उग्रतासे उनकी गति, मति आदि भी भ्रष्ट होने लगती है और वे मृतप्राय हो जाते है, उस समय सावधानीके साथ की गई वैयावृत्ति उनके लिए संजीविनी वटीका काम करती है, वे मरनेसे बच जाते है, गति, मति यथापूर्व हो जाती है और वे पुनः अपने व्रत, तप संयम आदिकी साधनाके योग्य हो जाते हैं, इसलिए ग्रन्थकारने यह ठीक ही कहा है कि जो वैयावृत्त्य करता है, वह रोगी साधु आदिको अभयदान, व्रत-संयम-समाधान और गति-मति प्रदान करता है, यहाँ तक कि वह जीवन-दान तक देता है और इस प्रकार वैयावृत्त्य करनेवाला सातिशय अक्षय पुण्यका भागी होता है। गुणपरिणामो जायइ जिणिंद-प्राणा य पालिया होइ। जिणसमय-तिलयभूत्रो लब्भइ प्रयतो वि गुणरासी ॥३४३।। भमइ जए जसकित्ती सजणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी। अण्णेवि य होति गुणा विजावञ्चेण इहलोए ॥३४॥(१) वैयावृत्त्य करनेसे गुण-परिणमन होता है, अर्थात् नवीन सद्गुणोंका प्रादुर्भाव और विकास होता है, जिनेन्द्र-आज्ञाका परिपालन होता है, और अयत्न अर्थात प्रयत्नके बिना भी गुणोंका समूह प्राप्त होता है तथा वह जिन-शासनका तिलकभूत प्रभावक व्यक्ति होता है ।। ३४३ ॥ सज्जन पुरुषोंके श्रोत्र, नयन और हृदयको सुख देनेवाली उसकी यश.कीर्ति जगमें फैलती है, तथा अन्य भी बहुतसे गुण वैयावृत्त्यसे इस लोकमे प्राप्त होते है ॥ ३४४ ॥ परलोए वि सरूवो चिराउसो रोय-सोय-परिहीणो। बल-तेय-सत्तजुत्तो जायह अखिलप्पयानो वा ॥३४५॥ जल्लोसहि-सम्वोसहि-अक्खीणमहाणसाइरिद्धीनो । अणिमाइगुणा य तहा विजावच्चेण पाउणइ ॥३४६॥ किं जंपिएण बहुणा तिलोहसंखोहकारयमहंत । तित्थयरणामपुण्णं विजावच्चेण अजेइ ॥३४७॥ वैयावृत्त्यके फलसे परलोकमे भी जीव सुरूपवान्, चिरायुष्क, रोग-शोकसे रहित, बल, तेज और सत्त्वसे युक्त तथा पूर्ण प्रतापी होता है ॥ ३४५ ॥ वैयावृत्त्यसे जल्लौषधि, सर्वोषधि, और अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, तथा अणिमा आदि अष्ट गुण प्राप्त होते है ॥३४६॥ अधिक कहनेसे क्या, वैयावृत्त्य करनेसे यह जीव तीन लोकमे संक्षोभ अर्थात् हर्ष और आश्चर्य को करनेवाला महान् तीर्थङ्कर नामका पुण्य उपार्जन करता है ॥ ३४७ ॥ तरुणियण-णयण-मणहारिरूव-बल-तेय-सत्तसंपण्णो । जाओ विजावचं पुब्वं काऊण वसुदेवो ॥३८॥ जीव पूर्वभवमें वैयावृत्त्य कर तरुणीजनोंके नयन और मनको हरण करने वाले रूप, बल, तेज और सत्त्वसे सम्पन्न वसुदेव नामका कामदेव हुआ ॥ ३४८ ॥ (१) वैयावृत्यकृतः किञ्चिदुर्लभं न जगज्ये । विद्या कीर्ति यशोलक्ष्मीः धीः सौभाग्यगुणेष्वपि ॥२०७॥-गुण श्रा०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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