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________________ प्रतिष्ठा-विधान रंगावलिं च मज्झे उविज सियवत्थपरिवुडं पीठं । उचिदेसु तह पइट्ठोवयरणदव्वं च ठाणेसु ॥४०६॥ प्रतिष्ठा-मंडपमें जाकर तत्रस्थ पूर्वोक्त वेदिकाके मध्यमें पंच वर्णवाले चूर्णके द्वारा प्रतिष्ठाकलापकी विधिसे पृथु अर्थात् विशाल कणिकावाले नील कमलको लिखे और उसमे रंगावलिको भरकर उसके मध्यमें श्वेत वस्त्रसे परिवत पीठ अर्थात सिंहासन या ठौनाको स्थापित कर तथा प्रतिष्ठामे आवश्यक उपकरण द्रव्य उचित स्थानोंपर रखे ॥ ४०५-४०६ ॥ एवं काऊण तो ईसाणदिसाए वेइयं दिव्वं ।। रहऊण राहवणपीठं तिस्से मज्झम्मि ठावेजो ॥४०७॥ अरुहाईणं पडिमं विहिणा संठाविऊण तस्सुवरि । धूलीकलसहिसेयं कराविए सुत्तहारेण ॥४०८॥ वस्थादियसम्माणं कायन्वं होदि तस्स सत्तीए । पोक्खणविहिं च मंगलरवेण कुज्जा तो कमसो॥४०९।। इस प्रकार उपर्युक्त कार्य करके पुनः ईशान दिशामें एक दिव्य वेदिका रचकर, उसके मध्यमें एक स्नान-पीठ अर्थात् अभिषेकार्थ सिहासन या चौकी वगैरहको स्थापित करे । और उसके ऊपर विधिपूर्वक अरहंत आदिकी प्रतिमाको स्थापित कर सूत्रधार अर्थात् प्रतिमा बनानेवाले कारीगरके द्वारा धूलीकलशाभिषेक करावे। तत्पश्चात् उस सूत्रधारका अपनी शक्तिके अनुसार वस्त्रादिकसे सन्मान करना चाहिए। तत्पश्चात् क्रमशः प्रोक्षणविधिको मांगलिक वचन गीतादिसे करे। (धूलीकलशाभिषेक और प्रोक्षणविधिके जाननेके लिए परिशिष्ट देखिए) ॥ ४०७-४०९ ॥ तप्पाप्रोग्गुवयरणं अप्पसमीवं णिविसिऊण तो। आगरसुद्धिं कुजा पइट्टसत्थुत्तमग्गेण ॥४१०॥ तत्पश्चात् आकर-शुद्धिक योग्य उपकरणोंको अपने समीप रखकर प्रतिष्ठाशास्त्रमें कहे हुए मार्गके अनुसार आकर शुद्धिको करे । (आकरशुद्धिके विशेष स्वरूपको जाननेके लिए परिशिष्ट देखिए) ॥ ४१० ॥ एवं काऊण तमो खुहियसमुद्दोव्व गजमाणेहिं । वरभेरि-करड-काल-जय-घंटा-संख-णिवहहिं ॥४११॥ गुलुगुलुगुलंत तविलेहिं कंसतालेहिं झमझमंतेहिं। घुम्मंत पडह-महल' हुडकमुक्खेहिं विविहेहिं ॥४१२।। गिज्जत संधिबंधाइएहिं गेएहिं बहुपयारेहिं । वीणावंसेहिं तहा प्राणयसहेहि रम्मेहिं ॥४१३॥ बहुहाव-भाव-विब्भम-विलास-कर-चरण-तणुधियारेहिं । णच्चंत णवरसुम्भिरण-णाडएहिं विविहेहिं ॥४१४॥ थोत्तेहि मंगलेहि य डाहसएहि महुरवयणस्स। धम्माणुरायरत्तस्स चाउब्वण्णस्स संघस्स ॥४१५॥ भत्तीए पिच्छमाणस्स तो उच्चाइऊण जिणपडिमं । उस्सिय सियायवत्तं सियचामरधुव्वमाण सव्वंग ॥४१६॥ आरोविऊण सीसे काऊण पयाहिणं जिणगेहस्स । विहिणा उविज्ज पुवुत्तवेइयामझपीठम्मि ॥४१७॥ १ब, मंहल। २ इ. गएहि, ब. गोएहिं । ३ ब. उम्भिय । ४ इ. दोलिमाण ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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