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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . संसारमे देवेन्द्र, चक्रवर्ती, और मांडलिक राजा आदिके जो सुख प्राप्त हैं, वह सब विनयका ही फल है। और इसी प्रकार मोक्षका सुख पाना भी विनयका ही फल है ॥ ३३४ ॥ सामण्णा वि य विजा ण विणयहीणस्स सिद्धिमुवयाइ । किं पुण णिन्वुइविज्जा विणयविहीणस्स सिझेइ ॥३३५॥ जब साधारण विद्या भी विनय-रहित पुरुषके सिद्धिको प्राप्त नही होती है, तो फिर क्या मुक्तिको प्राप्त करानेवाली विद्या विनय-विहीन पुरुषके सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं सिद्ध हो सकती ॥ ३३५ ॥ सत्तू वि मित्तभागं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणो तिविहेण तो कायचो देसविरएण ॥३३६॥(१) चूंकि, विनयशील मनुष्यका शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है, इसलिए श्रावकको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए ॥ ३३६ ॥ वैयारत्यका वर्णन अइबाल-बुड्ड-रोगाभिभूय-तणुकिलेससत्ताणं । चाउवण्णे संघे जहजोग्गं तह मणुएणाणं ॥३३७॥(२) कर-चरण-पिट्ठ-सिरसाणं महण-अभंग-सेवकिरियाहिं । उब्वत्तण-परियाण-पसारणाकुंचणाईहिं ॥३३॥ पडिजग्गणेहि तणुजोय-भत्त-पाणेहिं भेसजेहिं तहा। उच्चराईण विकिंचणेहिं तणुधोवणेहिं च ॥३३९।। संथारसोहणेहि य विजावच्चं सया पयत्तेण । कायचं सत्तीए णिम्विदिगिच्छेण भावेण ॥३४०।। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका, इस चार प्रकारके चतुर्विध संघमें अतिबाल, अतिवृद्ध, रोगसे पीड़ित अथवा अन्य शारीरिक क्लेशसे संयुक्त जीवोंका, तथा मनोज्ञ अर्थात् लोकमें प्रभावशाली साधु या श्रावकोंका यथायोग्य हाथ, पैर, पीठ और शिरका दबाना, तेलमर्दन करना, स्नानादि कराना, अंग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग पसारना, सिकोड़ना, करवट दिलाना, सेवा-शुश्रूषा वा आदि वा समयोचित कार्योके द्वारा, शरीरके योग्य पथ्य अन्न-जल द्वारा, तथा औषधियोंके द्वारा उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) आदिके दूर करनेसे, शरीरके धोनेसे, और संस्तर (बिछौना) के शोधनेसे सदा प्रयत्नपूर्वक ग्लानि-रहित भावसे शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिए ॥ ३३७-३४० ॥ हिस्संकिय-संवेगाइय जे गुणा वरिणया मणो विसया । ते होंति पायडा पुण' विजावचं करंतस्स ॥३४॥ देह-तव-णियम-संजम सील-समाही य अभयदाणं च । गइ मह बलं च दिण्णं विज्जावच्चं करतेण ॥३४२॥(३) १ इ. सिज्मेह, म. सिज्झिहइ, ब. सब्मिहइ । २ इ. पडित्तग्गा०, ब. पडिज्जग्ग० । ३३. मुणे। ४ ध, गुण । (१) विद्वेषिणोऽपि मित्रत्वं प्रयान्ति विनयाद्यतः। तस्मात्त्रेधा विधातव्यो विनयो देशसंयतैः ॥२०॥ ) बालवाक्यरोगादिक्लिष्टे संघे चतुर्विधे । वैयावृत्यं यथाशक्तिविधेग देशसंयतैः ॥२०५॥ ३) वपुस्तपोबलं शीलं गति-बुद्धि-समाधयः । निर्भलं नियमादि स्याद्वैयावृत्त्यकृतार्पणम् ॥२०६॥-गुण० श्रा०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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