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________________ विनय-वर्णन ११५ हित, मित, पूज्य, शास्त्रानुकुल तथा हृदयपर चोट नही करनेवाले कोमल वचन कहना और संयमी जनोंमें चाटु (नर्म) भाषण करना सो वाचिक विनय है ॥ ३२७ ॥ किरियम्मभुट्ठाणं णवणंजलि पासणुवकरणदाणं । एते पञ्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुब्वजणं ॥३२८॥(१) कायागुरूवमहणकरण कालाणुरूवपडियरण। संथारभणियकरणं उवयरणाणं च पडिलिहणं ॥३२९॥ इचवमाइ काइयविणो रिसि-सावयाण कायम्वो। जिणवयणमणुगणंतेण देसविरएण जहजोग्गं ॥३३०॥(२) साधु और श्रावकोंका कृतिकर्म अर्थात् वंदना आदि करना, उन्हे देख उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, अजली जोड़ना, आसन और उपकरण देना, अपनी तरफ आते देखकर उनके सन्मुख जाना, और जानेपर उनके पीछे पीछे चलना, उनके शरीरके अनुकूल मर्दन करना, समयके अनुसार अनुकरण या आचरण करना, संस्तर आदि करना, उनके उपकरणोंका प्रतिलेखन करना, इत्यादिक कायिक विनय है। यह कायिक विनय जिनवचनका अनुकरण करनेवाले देशविरती श्रावकको यथायोग्य करना चाहिए ॥ ३२८-३३० ॥ इय पञ्चक्खो एसो भणिो गुरुणा विणा वि आणाए। अणुवहिज्जए जंतं परोक्खविणो ति विएणेश्रो ॥३१॥(३) इस प्रकारसे यह तीनों प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुके विना अर्थात् गुरुजनोंके नही होनेपर भी उनकी आज्ञाके अनुसार मन, वचन, कायसे जो अनुवर्तन किया जाता है, वह परोक्ष-विनय है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ३३१॥ विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंसमो पुरिसो। सब्वस्थ हवइ सुहयो तहेव आदिज्जक्यणो य ॥३३२॥(४) विनयसे पुरुष शशांक (चन्द्रमा) के समान उज्ज्वल यशःसमूहसे दिगन्तको धवलित करता है। विनयसे वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है, अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं ॥ ३३२॥ जे केइ वि उवएसा इह-परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं सब्वे पाउणइ ते पुरिसा ॥३३३॥(५) जो कोई भी उपदेश इस लोक और परलोकमें जीवोंको सुखके देनेवाले होते है, उन सबको मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते है ।। ३३३ ॥ देविंद-चकहर-मंडलीयरायाइज सुहं लोए । सं सव्वं विणयफल शिवाणसुहं तहा' चेव ॥३३॥ १ प्रतिषु 'गुरुजणाओ' इति पाठः । २ प. तहच्चेव । (१) गुरुस्तुतिक्रियायुक्ता नमनोच्चासनार्पणम् । सम्मुखो गमनं चैव तथा वाऽनुव्रजक्रिया ॥१९९॥ (२) अंगसंवाहनं योग्यप्रतीकारादिनिर्मितिः। विधीयते यतीनां यत्कायिको विनयो हि सः ॥२०॥ (३) प्रत्यक्षोऽप्ययमेतस्य परोक्षस्तु विनापि वा। गुरूंस्तदाज्ञयैव स्यात्प्रवृत्तिः धर्मकर्मसु ॥२०१॥ (४) शशांकनिर्मला कीर्तिः सौभाग्यं भाग्यमेव च । श्रादेयवचनत्वं च भवेद्विनयतः सताम् ॥२०२॥ (५) विनयेन समं किंचित्रास्ति मित्रं जगाये। यस्मात्तेनैव विद्यानां रहस्यमुपलभ्यते ॥२०॥-गुण० श्राव०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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