SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानफल-वर्णन जह उत्तमम्मि खित्ते पइएणमण्णं सुबहुफलं होइ। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स ॥२४०॥ जिस प्रकार उत्तम खेतमे बोया गया अन्न बहत अधिक फलको देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्रको दिये गये दानका फल जानना चाहिए ॥ २४० ॥ जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वावियं बीयं । मझिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ॥२४१॥ जिस प्रकार मध्यम खेतमें बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्रमे दिया गया दान मध्यम फलवाला जानना चाहिए ॥ २४१ ॥ जह ऊसरम्मि खित्ते पइएणबीयं ण किं पिरुहेइ । फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिएणं तहा दाणं ॥२४२॥ जिस प्रकार ऊसर खेतमे बोया गया बीज कुछ भी नही ऊगता है उसी प्रकार कूपात्रमे दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए ॥ २४२ ॥ कम्हि "अपत्तविसेसे विण्णं दाणं दुहावहं होइ। जह विसहरस्स दिण्यां तिम्वविसं जायए खीरं ॥२४॥ प्रत्युत किसी अपात्रविशेषमे दिया गया दान अत्यन्त दुःखका देनेवाला होता है। जैसे विषधर सर्पको दिया गया दूध तीव्र विषरूप हो जाता है ॥ २४३ ।। मेहावीणं एसा सामएणपरूवणा मए उत्ता। इपिंह पभणामि फलं समासो मंदबुद्धीणं ॥२४॥ मेधावी अर्थात् बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए मैने यह उपर्युक्त दानके फलका सामान्य प्ररूपण किया है। अब मन्दबुद्धिजनोंके लिए संक्षेपसे (किन्तु पहलेकी अपेक्षा विस्तारसे) दानका फल कहता हूं ॥ २४४ ॥ मिच्छादिट्ठी भद्दो दाणं जो देइ उत्तमे पत्ते। तस्स फलेणुववज्जइ सो उत्तमभोयभूमीसु ॥२४५।। जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्रमें दान देता है, उसके फलसे वह उत्तम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २४५ ॥' जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देह दाणं खु वामदिट्ठी वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ॥२४६॥ जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुप मध्यम पात्रमे दान देता है, वह जीव मध्यम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ॥ २४६ ॥ जो पुण जहण्णापत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो ॥२७॥ और जो तथाविध अर्थात् उक्त प्रकारका मिथ्यादष्टि भी मनुष्य जघन्य पात्र में दान को देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोगभूमियोंमे उत्पन्न होता है ॥ २४७ ॥ जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोयभूमीसु । अणुमोयणेश तिरिया वि उत्तहाणं जहाजोग्गं ॥२४८॥ __ मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रको दान देनेसे कुभोगभूमियोमे उत्पन्न होता है। दानकी अनुमोदना करनेसे तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानोंको प्राप्त करते हैं, अर्थात् मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उत्तम पात्र दानकी अनुमोदनासे उत्तम भोगभूमिमें, मध्यम पात्रदानकी अनु १,२,३, झ. ब. छित्ते । ४ झ. किंचि रु होइ, ब. किंपि विरु होइ । ५ झ. ब. उ पत्तः । ६ प्रतिषु 'मेहाविऊण' इति पाठः ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy