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________________ १०२ वसुनन्दि-श्रावकाचार . विशेषार्थ-नख, जतु, केश, हड्डी, मल, मूत्र, मांस, रुधिर, चर्म, कद, फल, मूल, बीज और अशुद्ध आहार ये भोजन-सम्बन्धी चौदह दोष होते है। दासमयम्मि एवं सुत्तणुसारेण एव विहाणाणि । भणियाणि मए एण्डिं दायब्वं वण्णइस्सामि ॥२३२॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार मैने दानके समयमें आवश्यक नौ विधानों को कहा । अब दातव्य वस्तुका वर्णन करूगा ॥ २३२ ॥ दातव्य-वर्णन आहारोसह-सस्थाभयमेरो जं चउब्विहं दाणं । तं बुच्चई' दायव्वं णिटिमुवासयज्झयणे ॥२३३॥ आहार, औषध, शास्त्र और अभयके भेदसे जो चार प्रकारका दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है ॥ २३३ ॥ असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत-गाव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायब्वो ॥२३॥ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ॥ २३४ ॥ अइबुड्ड-बाल-मूर्यध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं । जहजोग्गं दायत्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ॥२३५॥ अति वृद्ध, बालक, मूक (गूगा) अंध, बधिर (बहिरा) देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवोंको 'करुणादान दे रहा ह' ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए ॥ २३५॥ उववास-वाहि-परिसम-किलेस-'परिपीडयं मुणेऊण । पस्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायब्वं ॥२३६॥ उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीडित जीवको जानकर अर्थात देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ॥ २३६ ॥ आगम-सस्थाई लिहाविऊण दिजति जं जहाजोग्गं । तं जाणा-सत्यदाणं जियावयाज्मावणं च तहा ॥२३॥ जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रोंको दिये जाते है, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए। तथा जिन-वचनोंका अध्यापन कराना-पढ़ाना भी शास्त्रदान है ।। २३७ ॥ जं कीरइ परिरक्खा णिचं मरण-भयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणा ॥२३८॥ मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ॥ २३८ ॥ दानफल-वर्णन अण्णामिणो वि जम्हा कजं ण कुणंति णिप्फलारंभ। सम्हा दाणस्स फलं समासदो वरणइस्सामि ॥२३९।। चूंकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भवाले कार्यको नहीं करते हैं, इसलिए मैं दानका फल संक्षेपसे वर्णन करूंगा ॥ २३९॥ १.ब. एवं। २. वञ्चह। ३ दरिद्राणाम् । झ. पडि० ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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