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________________ १०४ वसुनन्दि-श्रावकाचार मोदनासे मध्यम भोगभूमिमें, जघन्य पात्रदानकी अनुमोदनासे जघन्य भोगभूमिमें जाता है। इसी प्रकार कुपात्र और अपात्र दानकी अनुमोदना से भी तदनुकूल फलको प्राप्त होता है ॥ २४८ ॥ बद्धाउगा सुदिट्टी अणुमोयणेश तिरिया वि । णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभोगभूमीसु ॥२४९॥ बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामें पहिले मनुष्यायको बांध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकार के ही तिर्यञ्च पात्र-दानकी अनुमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम योंमे उत्पन्न होते है ।। २४९ ॥ तत्थ वि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए । खेत्त सहावेण सया पुन्वज्जियपुण्यासहियाणं ॥२५०॥ उन भोगभूमियोंमें दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते है, जो पूर्वोपार्जित पुण्य-संयुक्त जीवों को क्षेत्रस्वभावसे सदा ही उत्तम भोगोंको देते है ।। २५० ॥ मज्जग-तूर-भूसण-जोइस-गिह-भायणंग-दीवंगा । वत्थंग-भोयणंगा मालंगा सुरतरू दसहा ॥२५॥ मद्यांग, तूर्याग, भूषणांग, ज्योतिरग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजनांग और मालांग ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते है ॥ २५१ ॥ अइसरसमइसुगंधं दिटुं चि य जंजणेइ अहिलासं । इदिय-बलपुटियरं मजगा पाणयं दिति ॥२५२॥ ___ अति सरस, अति सुगंधित, और जो देखने मात्रसे ही अभिलाषाको पैदा करता है, ऐसा इन्द्रिय-बलका पुष्टिकारक पानक (पेय पदार्थ) मद्यांगवृक्ष देते है ॥ २५२ ॥ तय-वितय घणं सुसिरं वज तूरंगपायवा दिति । __ वरमउड-कुंडलाइय-श्राभरणं भूसरादुमा वि ॥२५३॥ तूर्यांग जातिके कल्पवृक्ष तत, वितत, धन और सुषिर स्वरवाले बाजोंको देते है। भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुडल आदि आभूषणोंको देते है ॥ २५३ । । ससि-सूरपयासाो अहियपयासं कुणंति जोइदुमा ।। याणाविहपासाए दिति सया गिदुमा दिव्वे ॥२५॥ ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष चन्द्र और सूर्यके प्रकाशसे भी अधिक प्रकाशको करते। हैं । गृहांगजातिके कल्पवृक्ष सदा नाना प्रकारके दिव्य प्रासादों (भवनों) को देते हैं ॥२५४॥ कच्चोल'-कलस-थालाइयाइ भायणदुमा पयच्छंति । उज्जोयं दीवदमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि ॥२५॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष वाटकी, कलश, थाली आदि भाजनोंको देते हैं। दीपांग जातिके कल्पवृक्ष घरके भीतर प्रकाशको किया करते हैं ॥ २५५ ॥ वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति वत्थदुमा । वर-चउविहमाहारं भोयणरुक्खा पयच्छति ॥२५॥ वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम रेशमी, चीनी और कोशे आदिके वस्त्रोंको देते है। भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम चार प्रकारके आहारको देते हैं ।। २५६ ॥ .. इ. सद्दिट्टी, ब. सदिही। २. ब. छित्त०। इ. छत्त। ३ भ. प. दिविय । ४. जं' इति पाठो नास्ति । ५ ब. कचोल ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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