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________________ दानविधि-वर्णन दातार-वर्णन सद्धा भत्ती तुट्टी विरणाणमलुद्धया' खमा सत्ती। जत्थेदे सत्त गुणा तं दायारं पसंसंति ॥२२॥(6) जिस दातारमें श्रद्धा, भक्ति, सतोष, विज्ञान, अलब्धता, क्षमा और शक्ति, ये सात गुण होते है, ज्ञानी जन उस दातारकी प्रशंसा करते है ॥ २२४ ॥ दानविधि-वर्णन पडिगह'मुच्चट्ठाणं पादोदयमञ्चणं च पणमं च । मण-वयण-कायसुद्धी एसणसुद्धी य दाणविही ॥२२५॥(२) प्रतिग्रह अर्थात् पड़िगाहना-सामने जाकर लेना, उच्चस्थान देना अर्थात् ऊचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजनकी शुद्धि, ये नौ प्रकारकी दानकी विधि है ॥ २२५ ॥ पत्तं णियघरदारे दहणण्णत्थ वा विमग्गित्ता । पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण १२२६॥ णेऊण णिययगेहं हिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तो चलणाण धोवणं होइ कायव्वं ॥२२७॥ पाश्रोदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अचणं कुज्जा । गंधक्खय-कुसुम-वज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहिं ॥२२॥ पुप्फंजलिं खिवित्ता पयपुरो वंदणं तो कुज्जा । चइऊण अट्ट-रुहे मणसुद्धी होइ कायव्वा ॥२२९॥ णिहर-ककस वयणाइवजणं तं वियाण वचिसुद्धिं । सम्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि ॥२३०॥ पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर, अथवा अन्यत्रसे विमार्गण कर-खोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए ॥ २२६ ॥ पुनः अपने घरमें ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोंको धोना चाहिए ॥ २२७ ॥ पवित्र पादोदकको शिरमें लगाकर पुनः गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजन करना चाहिए ॥ २२८ ॥ तदनन्तर चरणोंके सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वंदना करे । तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मनःशुद्धि करना चाहिए ॥ २२९ ॥ निष्ठुर और कर्कश आदि वचनोंके त्याग करनेको वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है ॥ २३० ॥ *चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजयिजणस्स दिजइ सा ऐया एसणासुद्धी ॥२३१॥ चौदह मल-दोषोंसे रहित, यतनासे शोधकर संयमी जनको जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए ॥ २३१ ॥ १ ब. मलुखुदया। २ प. ध. सत्तं । ३ ध. उच्च । (१) श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टिः शक्तिरलुब्धता । क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते ॥१५॥ (२) स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणमनैस्तथा । मनोवाकायशुद्धया वा शुद्धो दानविधिः स्मृतः ॥१५२॥-गुण० श्राव० #. ध. ब. प्रतिषु गाथेयमधिकोपलम्यते णह-जंतु-रोम-अट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर-चम्माई। कद-फल-मूल-बीया छिण्ण मला चउहसा होति ॥१॥-मूलाचार ४८४
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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