SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 755
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास दियरस्स सरअमउअं अंसुमइलेण देइ हत्थेण । पढ़मं हिअअं बहुआ पच्छा गण्डं सदन्तवणम् ॥(ल. कं०५,३१७) पहले बहू अपने देवर को अपना हृदय सौंपती है, तत्पश्चात् आँसुओं से मलिन हाथ से शरद् ऋतु में होने वाले अपने दाँत-कटे गन्ने को देती है । दीसइ ण चूअमउलं अज ण अ वाइ मलअगन्धवहो। एइ वसन्तमासो सहि ! जं उक्कण्ठिअं चेअं॥ (स० के० ३, १५६, गा० स० ६, ४२) हे सखि ! अभी आम्रवृक्ष पर मौर लगा नहीं और मलय का सुगंध पवन बहता नहीं, फिर भी मेरा उत्कंठित मन कह रहा है कि वसन्त आ गया है । (शेषवत् का उदाहरण) दीहो दिअहमुअंगो रइबिंबफणामणिप्पहं विअसन्तो। अवरसमुद्दमुवगओ मुंचंतो कंचुअंबधम्मअणिवहम् ॥ (स० के० ४,४६) दीर्घ सूर्य बिंबरूपी फण की मणि को विकसित करता हुआ और आतपरूपी केंचुली छोड़ता हुआ ऐसा दिवस रूपी सर्प पश्चिम समुद्र को प्राप्त हुआ (सूर्यास्त का वर्णन)। (रूपक अलङ्कार का उदाहरण) दुल्लहजणाणुराओ लजा गरई परवसो अप्पा । पिअसहि ! विसमं पेम्म मरणं सरणं णवर एकं ॥ (स० के० ५, १७७; साहित्य० पृ० ३६८दशरूपक १, पृ० २९; रत्नावलि २,१) दुर्लभ जन के प्रति प्रेम, गंभीर लज्जा और पराधीन आत्मा, हे प्रिय सखि ! ऐसा यह विषम प्रेम है, अब तो मृत्यु ही एक मात्र शरण है। दूमेन्ति जे मुहुत्तं कुविरं दास व्व जे पसाएन्ति । ते चिअ महिलाणं पिआ सेसा सामि चिम वराआ॥ . (स० कं५, २८६) जो थोड़ी देर के लिए (क्रीड़ा, गोत्र-स्खलन आदि द्वारा ) अपनी प्रिया को कष्ट देते हैं और कुपित हुई को दास की भाँति प्रसन्न करते हैं, वास्तव में वे ही महिलाओं के प्रिय हैं, बाकी तो विचार स्वामी कहे जाने योग्य हैं। दूरपडिबद्धराए अवऊहत्तम्मि दिणअरे अवरदिसम् । असहन्ति व्व किलिम्मइ पिअअमपञ्चक्खदूसणं दिणलच्छी॥ (स० के० ४, ८६) अत्यन्त रागयुक्त सूर्य के द्वारा पश्चिम दिशा ( अपर नायिका ) के आलिंगन किये जाने पर, दिवस-शोभा अपने प्रियतम के प्रत्यक्ष दूषण को सहन न कर सकने के कारण ही मानों म्लान हो चली है । ( समाधि अलङ्कार का उदाहरण) दे आ पसिअ णिअत्तसु मुहससिजोलाविलुत्ततमणिवहे। ___ अहिसारिआण विग्धं करेसि अण्णाण वि हआसे ॥ (ध्वन्या० उ० १, पृ० २२, काव्या० पृ० ५५, २२, दशरूपक २, पृ० १२३)
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy