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________________ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७५१ अपने मुखरूपी चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से अंधकार को दूर करने वाली है प्रिये ! तुम प्रसन्न हो कर घर लौटो । नहीं तो हे अभागिनी ! तुम अन्य अभिसारिकाओं के मार्ग में भी बाधा बन जाओगी। ( दीप्तिभाव का उदाहरण ) देवात्तम्मि फले किं कीरइ एत्तिअं पुणो भणिमो । कंकेल्लपल्लवाणं ण पल्लव होन्ति सारिच्छा ॥ ( ध्वन्या० उ० २, पृ० २०१; गा० स०३, ७९ ) फल सदा भाग्य के अधीन रहता है, इसमें कोई क्या कर सकता है ? हम तो इतना ही कहते हैं कि अशोक के पत्ते अन्य पत्तों के समान नहीं होते । ( अप्रस्तुतप्रशंसा, सङ्कर अलङ्कार का उदाहरण ) देहोva use दिअहो कण्ठच्छेओ व लोहिओ होइ रई । गइ रुहिर व संझा घोलइ केसकसणं सिरम्मि अ तिमिरं ॥ (स० कं० ४, ९१ ) देह की भाँति दिवस गिर रहा है, कंठच्छेद की भाँति सूर्य लाल हो रहा है, रुधिर की भाँति संध्या गल रही है और कृष्ण केशों वाले सिर की भाँति अन्धकार इधर-उधर घूर्णित हो रहा है । ( समाधि अलङ्कार का उदाहरण ) दंतभव कवोले कअग्गहोवेलिओ अ धम्मिलो । पsिधुम्मिरा अ दिट्ठी पिआगमं साहइ बहूए ॥ ( ८० कंं ५, २२० ) कपोल पर दाँतों के चिह्नों का दिखाई देना, केशग्रहण करने से छितराया हुआ केशों का जूड़ा और इधर-उधर घूमने वाली दृष्टि-ये नायिका के प्रियतम के आगमन को सूचित करते हैं । दंसणवलिअं ददकं बिबंधणं दीहरं सुपरिणाहम् । होइ घरे साहीणं मुसलं घरणाणं महिलाणम् ॥ (स०कं० ४, २३३) धान कूटने वाला, दृढ़, बन्धन रहित, दीर्घं और अति स्थूल मूसल उत्तम महिलाओं के घर सदा रहता है (यहाँ मूसल शब्द में ष है ) । ( भाविक अलङ्कार का उदाहरण ) सेमि तं पि ससिणं वसुहावइण्णं, थंभेमि तस्स वि रइस्स रहं णहद्धे । आणेमि जक्खसुरसिद्धगणंगणाओ, तं णत्थि भूमिवलए मह जंण सज्झम् ॥ (स० कं० ५, ४०९; कर्पूर मं० १, २५ ) मैं उस चन्द्रमा को पृथ्वी पर लाकर दिखा दूंगा, उस सूर्य के रथ को आकाश के बीच ठहरा दूंगा, तथा यक्ष, सुर और सिद्धांगनाओं को यहाँ ले आऊँगा । इस भूमंडल पर ऐसा कोई भी कार्य नहीं जिसे मैं सिद्ध न कर सकूँ (भैरवानंद की उक्ति ) । ओवप्पणवल्लरिविरइअकण्णावसदुपेच्छे | वाहगुरुआ णिसम्मइ वाहीएअ बहुमुहे दिट्ठी ॥ (स०कं० ५, १०८ ) प्रियंगुलता से विरचित कर्ण आभूषणों के कारण दुष्प्रक्ष्य और शांत ऐसे वधू के मुख पर अश्रुपूर्ण दृष्टि आगे जाने से रुक जाती है ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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