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________________ ७३६ प्राकृत साहित्य का इतिहास जाओ सो वि विलक्खो मए वि हसिऊण गाढ़मुवगूढो । पढ़मोवसरिअस्स णिसणस्स गंठिं विमग्गन्तो ॥ (स-कं०५, १७०% गा०स०४,५१) (संभोग के समय ) पहले ही खुली हुई नाड़े की गांठ को टटोलता हुआ वह लज्जित हो गया, यह देख, हँस कर मैंने उसे आलिंगनपाश में बाँध लिया। (आक्षेप अलंकार का उदाहरण ) जाएज्ज वणुहेसे खुजो च्चिअ पायवो झडिअपत्तो। मा माणुसम्मि लोए चाई रसिओ दरिहो अ॥ (काव्या० पृ० ७८, १४९; ध्वन्या० उ०२ पृ० २०४, गा० स०३,३०) किसी जंगल में पत्तों के बिना कोई बौना वृक्ष होकर मैं जन्म लूँ तो यह ___ अच्छा है, लेकिन मनुष्यलोक में दानशील और रसिक हो कर, दरिद्र बन कर .. जन्म लेना मैं नहीं चाहता। (विध्याभास और व्यतिरेक अलंकार का उदाहरण) जाणइ जाणावेउं अणुणअविहुरीअमाणपरिसेसं। रइविकमम्मि विणावलम्बणं स चिअ कुणन्ती॥ (स०के०५,३८९; गा०स०१,८८) मनुहार द्वारा ( अपने प्रियतम के ) समस्त मान को द्रवित करके एकान्त में (सुरतक्रीड़ा के समय ) विनय व्यक्त करना केवल वही जानती है। ( अन्य युवतियाँ नहीं)। (उदात्ता नायिका का उदाहरण) जाणइ ! सिणेहभणि मारअणिअरित्ति मे जुउच्छसु वअणम् । उज्जाणम्मि वणम्मि अजं सुरहिं तं लआण घेप्पइ कुसुमं ॥ (स० के०५, ४१७, सेतुबंध ११, ११९) हे जानकि ! मुझे राक्षसी समझ कर स्नेहपूर्वक कहे हुए मेरे वचनों के प्रति जुगुप्सा मत करो। उद्यान अथवा वन में लताओं के सुगंधित पुष्प ही ग्रहण किये जाते हैं ( अन्य वस्तुएँ नहीं)। जा थेरं व हसन्ती कइवंअणंबुरुहबद्धविणिवेसा। दावेइ भुअणमंडलमण्णं विअ जअइ सा वाणी॥ (काव्य प्र०४,६७) कवियों के मुखकमल पर विराजमान सरस्वती मानो बूढ़े ब्रह्मा का उपहास कर रही है। किसी विलक्षण भुवनमंडल का मानो वह प्रदर्शन कर रही है । उसकी विजय हो। (व्यतिरेक ध्वनि का उदाहरण) जो जस्सहिअअदइओ दुक्खं देन्तो वि सो सुहं देइ । दइअणहदूमिआणं वि चड्ढीइ स्थणआणं रोमञ्चो॥ (स० कं०.४, १६१) . जो जिसके हृदय को प्रिय है वह उसे दुख देता हुआ भी सुख ही देता है। पति के नखक्षत से क्लेश को प्राप्त स्तनों में रोमांच ही पैदा होता है। (अर्थातरन्यास अलंकार का उदाहरण)
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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