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________________ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची . ७३७ । जोण्हाइ महुरसेण अ विइण्णतारुण्णउस्सुअमणा सा । बुड्ढा वि णवोणव्विअ परवहुआ अहह हरइ तुह हिअअम् ॥ (काव्य प्र०४, ९२) तुम्हें तो कोई परकीया 'चाहिये चाहे वह वृद्धा ही क्यों न हो, जो ज्योत्स्ना तथा मदिरा के रस से अपना तारुण्य अर्पित कर उत्कंठित हो उठी हो; नववधू के समान वही तुम्हारे हृदय को आनन्द देगी। (अर्थशक्ति-उद्भव ध्वनि का उदाहरण ) जो तीऍ अहरराओ रत्तिं उब्वासिओ पिअअमेण । सो चिञ दीसइ गोसे सवत्तिणअणेसु संकन्तो॥ (स० के० ३, ७९; गा० स०२, ६, काव्या० पृ० ३८९, ६३१) प्रियतमा के ओठों में जो लाल रंग लगा था वह प्रियतम के द्वारा रात्रि के समय पोंछ डाला गया; जान पड़ता है प्रातः काल में वही रंग सौतों के नेत्रों में प्रतिबिंबित हो रहा है। (परिवृत्ति और पर्याय अलंकार का उदाहरण) जं किंपि पेच्छमाणं भणमाणं रे जहा तहञ्चेव ।। णिज्झाअ णेहमुद्धं वअस्स! मुद्धं णिअच्छेह ॥ (दशरूपक प्र० २, पृ० १२०) हे मित्र ! चाहे तुम स्नेहमुग्ध भोली नायिका को दृष्टिपात करती हुई देखो या बोलती हुई को, बात एक ही है। (हाव का उदाहरण ) जं जस्स होइ सारं तं सो देइत्ति किमत्थ अच्छे । अणहोत्तं पि हु दिणं तइ दोहग्गं सवत्तीणम् ॥ . (स०के० ३, १८०) इसमें कौनसा आश्चर्य है कि जो जिसके योग्य होता है वह उसे दिया जाता है, लेकिन आश्चर्य है कि उसने अनहोने दुर्भाग्य को अपनी सौतों को दे दिया ! ( अत्यन्ताभाव का उदाहरण) जं जं करेसि जं जंच जंपसे जह तुमं नियंसेसि । तं तमणुसिक्खिरीए दीहो दिअहो न संपडइ ॥ (काच्या० पृ० ४२५, ७२३, स० कं० ५, १५२; गा० स०४,७८) । जैसे-जैसे त करता है, बोलता है और देखता है, वैसे-वैसे मैं भी उसका अनुकरण करती हूँ, लेकिन दिन बड़ा है और वह समाप्त होने में नहीं आता। (दूती की नायक के प्रति उक्ति) जंजं सो णिज्झाअइ अंगोआसं महं अणिमिसच्छो । पच्छाएमि अ तं तं इच्छामि अ तेण दीसंतं ॥ (शृंगार०३, ४; गा० स०१,७३), मेरे जिस-जिस अंग को निर्निमेष नयन से वह ध्यान पूर्वक देखता है उसका मैं प्रच्छादन कर लेती हूँ; चाहती हूँ वह देखता ही रहे। ४७ प्रा०सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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