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________________ ७३४ प्राकृत साहित्य का इतिहास क्यों खड़ा है ? तेरे स्पर्श के लिये खुजलाने वाले मेरे हाथों ने दौड़कर तुझे छू लिया है ( मैंने नहीं छुआ)। जइ देअरेण भणिआ खग्गं घेत्तूण राउलं वच्च । तं किं सेवअबहुए हसिऊण वलोइअं सअणं ॥ (स० कं० २, ३७०) जब देवर ने उससे कहा कि तू खड्ग लेकर राजकुल में जा तो यह सुनकर सेवक की वधू हँस कर शयन की ओर देखने लगी। ___ ( अभिप्राय गूढ का उदाहरण ) जइ सो ण वल्लह चिअ णामग्गहणेण तस्स सहि ! कीस। होइ मुहं ते रविअरफंसविसर्ट्स व्व तामरसम् ॥ (स० के० ५, २३०; गा० स० ४,४३) . यदि वह तुम्हारा प्रिय नहीं तो जैसे सूर्य की किरणों के स्पर्श से फमल विकसित होता है, वैसे ही हे सखि ! उसका नाम भर लेने से तुम्हारा मुख क्यों खिल उठता है ?' जइ होसि ण तस्स पिआ अणुदिअइं णीसहेहिं अंगेहिं । णवसूअपोअपेऊसमत्तपाडि म किं सुवसि ॥ (स० कं० ५, ३२७, गा० स० १,६५) . यदि तू उसकी प्रिया नहीं तो प्रतिदिन (सुरत के परिश्रम से ) थक कर खीस पीकर सोई हुई नवप्रसूत महिषा की भाँति मस्त होकर क्यों सोती है ? जत्थ ण उजागरओ जत्थ ण ईसा विसूरणं माणम् । सब्भावचाटुअं जत्थ णस्थि हो तहिं णत्यि ॥ (स० कं० ५, २६२) जहाँ उजागरता नहीं, ईर्ष्या नहीं, रोष नहीं, मान नहीं और सद्भावपूर्ण चाटुकारिता नहीं, वहाँ कभी स्नेह नहीं हो सकता। जस्स जहिं चिअ पडमं तिस्सा अंगंभि णिव डिआ दिट्ठी। तस्स तहिं चेय ठिा सवंगं तेण वि ण दिलु ॥ (शृंगार ३२, १५६) उसके अंग पर जहाँ जिस जगह पहले दृष्टि पडी वह उसी जगह रह गई, इससे उसके सारे अंग का दर्शन ही न हो सका। जस्स रणंतेउरए करे कुणंतस्स मंडलग्गलयं । रससंमुही वि सहसा परम्मुही होइ रिउसेणा ॥ (काव्या० पृ० ३५२, ५३८; साहित्य, पृ० ७५७; काव्यप्र० १०, ४२२) रणरूपी अंतः पुर में खड्गलता (प्रिया) का पाणिग्रहण करने वाले उस १. मिलाइये-नाम सुनत ही है गयो तन और मन और । दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ कहा चढ़ाये त्यौर ॥ (बिहारीसतसई)
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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