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________________ ७३२ प्राकृत साहित्य का इतिहास चूयंकुरावयंसं छणपसरमहग्घमणहरसुरामोअं। अवणामियं पि गहिथं कुसुमसरेण महुमासलच्छीए मुहं ॥ (कान्या० पृ० ७९, ७४, धन्या० उ० ३, पृ० २३९) आम्रमंजरी के कर्ण-आभूषणों से अलंकृत और वसन्तोत्सव के महासमारोह के कारण सुंदर तथा सुगंधि से पूर्ण ऐसे वसन्तलक्ष्मी के बिना झुकाए हुए मुख को कामदेव ने ज़बर्दस्ती पकड़ लिया। ( अर्थशक्ति-उद्भव ध्वनि का उदाहरण) चंदणधूसर आउलिअलोअणअं हासपरम्मुहअंणीसासकिलालिअनं। दुम्मणदुम्मण संकामिअमण्डण माणिणि! आणणअंकिं तुज्झ करडिअअं॥ (स० के० २, ३९४) चन्दन के समान धूसरित, व्याकुल लोचनों से युक्त, हास्यविहीन, निश्वास से खेदखिन्न, दुष्ट चित्त वालों के लिये दुखरूप तथा शोभाविहीन ऐसा तुम्हारा यह मुखड़ा हे मानिनि ! तुम्हारे हाथ पर क्यों रक्खा है ? (दृश्य काव्य में हल्लीसक का उदाहरण) चंदमऊहेहिं निसा णलिणी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लया। हंसेहिं सरयसोहा कवकहा सजणेहिं कीरई गरुई ॥ (काव्या० ३५५, ५५१) जैसे रात्रि चन्द्रमा की किरणों से, कमलिनी कमलों से, लता पुष्पों के गुच्छों से और शरद हंसों से शोभित होती है, वैसे ही काव्यकथा सज्जनों के साथ अच्छी लगती है। (दीपक अलंकार का उदाहरण) चंदसरिसं मुहं से अमअसरिच्छो अ मुहरसो तिस्सा। सकअग्गहरहसुजल चुंबणअं कस्स सरिसं से ॥ (स०कं०४, २५, १४४, गा० स०३, १३) उसका मुख चन्द्रमा के समान है और मुख का रस अमृत के समान, फिर बताओ, उसके केशों को पकड़ कर झट से उसका चुंबन लेना किसके समान होगा? (उपमान लुप्तोपमा और संकर अलंकार का उदाहरण) चिंताणिअदइअसमागमम्मि किदमण्णुआई सरिऊण । सुगं कलहाअन्ती सहीहि रुण्णा ण ओहसिया । (स०के०५,३५, गा० स०१,६०) ध्यान में बैठे-बैठे प्रियतम का समागम होने पर कोप के कारणों को स्मरण करके व्यर्थ ही कलह करती हुई नायिका को देखकर उसकी सखियाँ न रो सकीं और न हँस सकीं। चुंबिजइ सअहुत्तं अवरुन्धिजइ सहस्सहुत्तम्मि । विरमिअ पुणो रमिजइ पिओ जणो णस्थि पुनरुत्तम् ॥ (ध्वन्या उ०१ पृ०७४) ( रसिक नायक ) नायिका को सैकड़ों बार चूमता है, हजारों बार आलिंगन
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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