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________________ प्राकृतरूपावतार अहनन्दि के समीप बैठकर उन्होंने जैनशास्त्रों का अभ्यास किया था । उन्होंने अपने आपको सुकवि रूप में उल्लिखित किया है, यद्यपि अभी तक उनका कोई काव्य-ग्रंथ प्रकाश में नहीं आया। इनका समय ईसवी सन् की १३वीं शताब्दी माना जाता है। त्रिविक्रम ने साधारणतया हेमचन्द्र के सिद्धहम (प्राकृतव्याकरण) का ही अनुगमन किया है । हेमचन्द्र की भाँति इन्होंने भी आर्ष (प्राकृत ) का उल्लेख किया है, लेकिन उनके अनुसार देश्य और आर्ष दोनों रूढ़ होने के कारण स्वतन्त्र हैं इसलिये उनके व्याकरण की आवश्यकता नहीं; संप्रदाय द्वारा ही उनके सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । यहाँ उसी प्राकृत के व्याकरण के नियम दिये हैं जिनके शब्दों की खोज साध्यमान संस्कृत और सिद्ध संस्कृत से की जा सकती है। त्रिविक्रम ने इस व्याकरण पर स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना की है। प्राकृत रूपों के विवेचन में उन्होंने हेमचन्द्र का आश्रय लिया है। इसमें तीन अध्याय हैं,प्रत्येक में चार-चार पाद हैं। प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में प्राकृत का विवेचन है। तत्पश्चात् तृतीय अध्याय के दूसरे पाद में शौरसेनी (१-२६), मागधी (२७-४२), पैशाची (४३-६३), और चूलिकापैशाची (६४-६७) के नियम दिये हुए हैं । तीसरे और चौथे पादों में अपभ्रंश का विवेचन है। प्राकृतरूपावतार इसके कर्ता समुद्रबंधयज्वन् के पुत्र सिंहराज हैं जो ईसवी सन की १५वीं शताब्दी के प्रथमार्ध के विद्वान् माने जाते हैं । १. तद्भव शब्द दो प्रकार के होते हैं-साध्यमान संस्कृतभव और सिद्ध संस्कृतभव । जो प्राकृत शब्द उन संस्कृत शब्दों का, बिना उपसर्ग और प्रत्यय के, मूलरूप बताते हैं जिनसे कि वे बने हैं, पहली श्रेणी में आते हैं। जो व्याकरण से सिद्ध संस्कृत रूपों से बने हैं ऐसे प्राकृत शब्द दूसरी श्रेणी में आते हैं (जैसे वन्दिता) संस्कृत वन्दित्वा से बना है । ___२. हुल्श द्वारा सम्पादित, रॉयल एशियाटिक सोसायटी की ओर से सन् १९०९ में प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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