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________________ ६१६ प्राकृत साहित्य का इतिहास श्वेतवर्ण के प्रासाद और अग्रभाग की दूकानों के अलिन्दों (कोठों) में मानों मधुर गुड़ प्रसारित हो गया है । गणिकायें तथा नगरवासी विशेषरूप से सज्जित हो अपने आप का प्रदर्शन करने की इच्छा से उन प्रासादों में विभ्रमपूर्वक सञ्चार कर रहे हैं। मैं इन लोगों को इस अवस्था में देखकर उन्मादयुक्त हो रात्रि के समय आपका सहायक बनूँगा, यह सोचकर नगर से बाहर चला आया हूँ । सो भी हमारे दुर्भाग्य से किसी अनर्थ की चिन्ता से कुछ और ही हो गया। यह आपका आवासघर है। आज नगर की दुकानों के अलिन्दों में सुनता हूं कि राजकुमारी की धात्री और सखी आपके घर से बाहर गई है। अब क्या किया जाये ? अथवा पुरुप का भाग्य हाथी की सैंड के समान चञ्चल होता है । अथवा हमारा अनर्थ नष्ट हो जाये । अवस्था के समान राजकुल में प्रवेश करता हूँ। चारुदत्त ( अङ्क १) में शकार के मुख से मागधी की उक्ति सुनिये चिट्ठ चिट्ठ वशञ्चशेणिए ! चिट्ठ किं याशि धावशि पधावशि पक्खलन्ती शाहु प्पशीद ण मलीअशि चिट्ट दाव । कामेण शम्पदि हि जज्झइ मे शलीलं अंगालमज्झपडिदे विअ चम्मखंडे । -ठहर-ठहर वसन्तसेना! ठहर ! जा । तू क्यों जा रही है, क्यों भाग रही है, क्यों गिरती-पड़ती जोर से दौड़ रही है ? हे सुन्दरी ! प्रसन्न हो, तुझे कोई मार नहीं रहा है, ठहर जा। मेरा शरीर काम से प्रज्वलित हो रहा है जैसे आग में गिरा हुआ चमड़ा। मृच्छकटिक शूद्रक (ईसवी सन् की लगभग पाँचवीं शताब्दी) के
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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