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________________ ૧૭૮ प्राकृत साहित्य का इतिहास कर लेती हैं, लेकिन जिन्हें उनके विरह में निद्रा ही नहीं आती वे वेचारी स्वप्न ही क्या देखेंगी? ६. जाव ण कोसनिकासं पावइ ईसीस मालईकलिआ । मअरंदपाणलोहिल्ल भमर तावचिअ मलेसि ॥ -मालती की कली का विकसित होने के पूर्व ही, पुष्परस पान करने का लोभी भ्रमर मर्दन कर डालता है।' १०. सो णाम संभरिजइ पब्भसिओ जो खणं पि हिअआहि । __ संभरिअव्वं च करं ग अ पेन्मं णिरालंबम् ।। -जो एक क्षण के लिये भी हृदय से दूर रहे उसका नाम स्मरण करना तो ठीक कहा जा सकता है (लेकिन जो रात-दिन हृदय में रहता है उसका क्या स्मरण किया जाये १)। यदि प्रिय स्मरण करने योग्य है तो प्रेम निरालंब ही हो जायेगा। ११. पणअकुविआणं दोण्ह वि अलिअपसुत्ताणं माणइल्लाणम् । णिञ्चलणिरुद्धणीसासदिण्णकण्णाणं को मल्लो ॥ -प्रणय से कुपित, झूठ-मूठ सोये हुए, मानयुक्त, एक दूसरे के निश्चल रोके हुए निश्वास की ओर कान लगाये हुए नायक और नायिका दोनों में देखें कौन मल्ल है ? ( कोई भी नहीं)। १२. अण्णाण्णं कुसुमरसं जं किर सो महइ महुअरो पाउं । तं णीरसाण दोसो कुसुमाणं णेअ भमरस्स ।। -भौंरा जो दूसरे.दूसरे कुसुमों का रस पान करना चाहता है, इसमें नीरस कुसुमों का ही दोष है, भौं रे का नहीं। १३. अण्णमहिलापसंगं दे देव ! करेसु अह्म दइअस्स । पुरिसा एकन्तरसा ण हु दोसगुणे विआणंति ॥ -हे देव ! हमारे प्रियतम को किसी अन्य महिला से मिलने का भी प्रसंग हो क्योंकि एकमात्र रस के भोगी पुरुष स्त्रियों के गुण-दोष नहीं समझते। १. मिलाइये-नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहि विकास इहिं काल । अली कलीही ते बंध्यो आगे कौन हवाल ॥ -बिहारीसतसई
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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