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________________ गाहासत्तसई ५७७ -उसके शरीर पर जहाँ जिसकी दृष्टि पड़ी, वहीं वह लगी रह गई, और उसका सारा अंग कोई भी न देख सका। ४. वेविरसिण्णकरंगुलि परिग्गहक्खसिअलेहणीमग्गे। सोत्थिव्विअ ण समप्पइ पिअसहि लेहम्मि किं लिहिमो॥ -काँपती हुई और स्वेदयुक्त उँगलियों द्वारा पकड़ी हुई लेखनी के स्खलित हो जाने से, नायिका स्वस्ति शब्द को ही पूरा न कर सकी, पत्र तो वह विचारी क्या लिखती ? ५. अव्वो दुक्करआरअ ! पुणो वि तंतिं करेसि गमणस्स | ___ अन्ज वि ण होति सरला वेणीअ तरंगिणो चिउरा॥ -हे कठोर हृदय ! अभी तो (विरह अवस्था में बँधी हुई) वेणी के कुटिल केश भी सीधे नहीं हो पाये, और तुम फिर से जाने की बात करने लगे। ६. हत्थेसु अ पाएसु अ अंगुलिगणणाइ अइगआ दिअहा । एण्हि उण केण गणिज्जउ त्ति भणिअ रुअइ मुद्धा । -हाथ और पाँवों की सब उँगलियाँ गिनकर दिन बीत गये, अब मैं किस प्रकार शेष दिनों को गिन सकूँगी, यह कहकर मुग्धा रुदन करने लगी। ७. बहलतमा हअराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुण्णम् । तह जग्गेसु सअजिअ ! ण जहा अम्हे मुसिज्जामो॥ -आज की हतभागी रात में घना अँधेरा है, पति परदेश गये हैं, घर सूना है। हे पड़ोसिन ! तुम आज रात को जागरण करो जिससे चोरी न हो जाये। ८. धण्णा ता महिलाओ जा दइअं सिविणए वि पेच्छंति । णिदव्विअ तेण विणा ण एइ का पेच्छए सिविणम् ॥ -वे महिलायें धन्य हैं जो अपने पति का स्वप्न में तो दर्शन १. मिलाइये-अज्यौं न आये सहज रंग बिरह दूबरे गात । ___ अबहीं कहा चलाइयत ललन चलन की बात ॥ १३०॥ -बिहारीसतसई। ३७ प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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