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________________ ५७० प्राकृत साहित्य का इतिहास पूजाप्रकाश' संघाचारभाष्य, श्राद्धदिनकृत्य आदि से उद्धृत किया गया है। प्राकृत के अतिरिक्त संस्कृत और अपभ्रंश में भी चरितग्रन्थों की रचना हुई, और आगे चलकर पंप, रन्न और होन ने कनाडी भाषा में तीर्थंकरों के चरित लिखे । स्तुति-स्तोत्र साहित्य चरित-प्रन्थों के साथ-साथ अनेक स्तुति-स्तोत्र भी प्राकृत में लिखे गये। इनमें धनपाल का ऋषभपंचाशिका और वीरथुइ, नंदिषेण का अजियसंतिथव, धर्मवधन का पासजिनथव, जिनपद्मका संतिनाथव, जिनप्रभसूरि का पासनाहलहुथवा तथा भद्र १. श्रुतज्ञान अमीधारा सीरीज़ में शाह रायचंद गुलाबचन्द की ओर से सन् १९४० में प्रकाशित ।। २. डा० ए० एम० घाटगे ने अनैल्प आफ भांडारकर ओरिटिएल इंस्टिट्यूट, भाग १६, १९३४-५ में 'नरैटिव लिटरेचर इन महाराष्ट्री' नामक लेख में चरित-ग्रन्थों का इतिहास दिया है। ३.-४. जर्मन प्राच्य विद्यासमिति की पत्रिका के ३३वे खंड में प्रकाशित । फिर सन् १८९० में बम्बई से प्रकाशित काव्यमाला के ७वें भाग में प्रकाशित । सावचूर्णि ऋषभपंचाशिका के साथ वीरथुई देव. चन्दलाल भाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला की ओर से सन् १९३३ में बंबई से प्रकाशित हुई है। ५. मुनि वीरविजय द्वारा संपादित अहमदाबाद से वि० सं० १९९२ में प्रकाशित । जिनप्रभसूरि ने १३६५ में इस पर टीका लिखी है। यह स्तवन उपसर्ग-निवारक माना गया है, जो इसका पाठ करता है और इसे श्रवण करता है उसे कोई रोग नहीं होता। लघुभजितसंतिथव के कर्ता जिनवल्लभसूरि हैं। इसमें १७ गाथायें हैं जिन पर धर्मतिलक मुनि ने उल्लासिक्रम नाम की व्याख्या लिखी है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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