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________________ ४९२ प्राकृत साहित्य का इतिहास कारी होते हैं । जो कुछ कहने पर रुष्ट हो जाते हैं, कही हुई बात को मन में रखते हैं, कर्त्तव्य का ठीक से पालन नहीं करते, ऐसे शिष्य शिष्य नहीं कहे जा सकते । राग-द्वेष के सम्बन्ध में उक्ति हैको दुक्खं पाविज्जा ? कस्स व सुक्खेहिं बिम्हओ हुन्जा ? को व न लभिज मुक्खं ? रागहोसा जइ न हुज्जा ? -यदि राग-द्वेष न हों तो कौन दुख को प्राप्त करे ? कौन सुख पाकर विस्मित हो ? और किसे मोक्ष की प्राप्ति न हो ? कपटग्रंथि के संबंध में कहा है जाणिजइ चिंतिजइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं । न य विसयेसु विरजई, अहो सुबद्धो कवडगंठी ।। -यह जीव जन्म, जरा और मरण से उत्पन्न होनेवाले दुख को जानता है, समझता है, फिर भी विषयों से विरक्त नहीं होता। कपट की यह गाँठ कितनी दृढ़ बँधी हुई है ! विनय को मुख्य बताया हैविणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ? -शासन में विनय मुख्य है। विनीत ही संयत हो सकता है। जो विनय से रहित है उसका कहाँ धर्म है और कहाँ उसका तप है ? उवएसपद (उपदेशपद) उपदेशपद याकिनीमहत्तरा के धर्मपुत्र और विरहांक पद से प्रख्यात हरिभद्रसूरि की रचना है, जो कथा साहित्य का अनुपम भण्डार है। ग्रन्थकर्ता ने धर्म कथानुयोग के माध्यम से इस कृति में मन्द बुद्धिवालों के प्रबोध के लिए जैनधर्म के उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। इसमें १०३६ गाथायें हैं जो आर्या छन्द में लिखी गई हैं। उपदेशपद् के ऊपर स्याद्वादरत्नाकर के प्रणेता वादिदेव सूरि के गुरु मुनि
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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