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________________ उपदेशपद् ४९३ चन्द्रसूरि की सुखबोधिनी नाम की टीका है जो प्राकृत और संस्कृत में पद्य और गद्य में लिखी है, और अनेक सुभाषितों और सूक्तियों से भरपूर है; अनेक सुभाषित अपभ्रंश में हैं। मुनिचन्द्र सूरि प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के बड़े अच्छे विद्वान् थे, और अणहिल्लपाट नगर में विक्रम संवत् ११७४ में उन्होंने इस टीका की रचना की थी।' सर्वप्रथम मनुष्य-जन्म की दुर्लभता बताई गई है। चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वप्न, चक्र, चर्म, यूप और परमाणु नामक दस दृष्टान्तों द्वारा इसका प्रतिपादन किया है। धान्य का उदाहरण देते हुए बताया है कि यदि समस्त भरत क्षेत्र के धान्यों को मिला कर उनमें एक प्रस्थ सरसों मिला दी जाये तो जैसे किसी दुर्बल और रोगी वृद्धा स्त्री के लिये उस थोड़ी सी सरसों को समस्त धान्यों से पृथक् करना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार अनेक योनियों में भ्रमण करते हुए जीव को मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है । रत्न के दृष्टान्त द्वारा कहा गया है कि जैसे समुद्र में किसी जहाज के नष्ट हो जाने पर खोये हुए रत्न की प्राप्ति दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति भी दुर्लभ समझनी चाहिये । विनय का प्रतिपादन करने के लिये श्रेणिक का दृष्टांत दिया गया है। इस प्रसंग में वृद्धकुमारी (वडुकुमारी) की . आख्यायिका दी है ! सूत्रदान में नन्दसुन्दरी की कथा का उल्लेख है। बुद्धि के चार भेद बताये हैं-औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिका | अनेक पदों द्वारा इनके विस्तृत उदाहरण देकर समझाया गया है । भरतशिला नामक पद में रोहक की कथा दी है । राजा उसकी अनेक प्रकार से बुद्धि की परीक्षा कर अन्त में उसे अपना प्रधान मंत्री बना लेता है । और भी अनेक पहेलियों और प्रश्नोत्तरों के रूप में मनोरंजक आख्यान यहाँ १. मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा से सन् १९२३-५ में दो भागों में प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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