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________________ जैन मान्यतायें ३७१ गया', और इस सबका प्रतिपादन नगर के उद्यान में ठहरे हुए किसी मुनि या केवली के मुख से कराया गया। उपदेश के प्रसंग में मुनि महाराज अपने या श्रोता के पूर्वभवों का वर्णन करने लगते हैं, और अवान्तर कथाओं के कारण मूलकथा पीछे छूट जाती है। हरिभद्र की समराइञ्चकहा में एक ही व्यक्ति के दस भवों का विस्तृत वर्णन है। यहाँ कर्मपरिणति मुख्य स्थान ग्रहण करती है जो जीवमात्र के भूत, भविष्य और वर्तमान का निश्चय करती है। आखिर पूर्व जन्मकृत कर्म के ही कारण मनुष्य ऊँची या नीची गति को प्राप्त होता है, और इसीलिये प्राणिमात्र पर दया करना आवश्यक बताया है। त्याग और वैराग्य की मुख्यता होने से यहाँ स्त्री-निन्दा के प्रकरणों का आ जाना भी स्वाभाविक है। पउमचरिय में स्त्रियों को दुश्चरित्र का मूल बताकर सीता के चरित्र के संबंध में सन्देह प्रकट किया गया है, और यह बात रामचन्द्र के मुख से कहलाई गई है। यद्यपि ध्यान रखने की बात है कि राजीमती, चंदनबाला, सुभद्रा, मृगावती, जयंती, दमयंती आदि कितनी ही सती-साध्वी महिलायें अपने शील, त्याग और संयम के लिये जैन परंपरा में प्रसिद्ध हो गई हैं। इस दिशा में कुमारपालप्रतिबोध में शीलमती का मनोरंजक और बोधप्रद आख्यान उल्लेखनीय है। १. जिनेश्वरसूरि ने कथाकोष में कहा है सम्मत्ताई गुणाणं लामो जह होज कित्तियाणं पि । ता होजणे पयासो सकयस्थो जयउ सुयदेवी । -यदि थोड़े भी श्रोताओं को इस कृति के सुनने से सम्यक्त्व आदि गुणों की प्राप्ति हो सके तो मैं अपने प्रयास को सफल समशृंगा। २. उपदेशपद-टीका (पृ. ३५४ ) में कहा है सव्वो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमेत्तं परो होई ॥
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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