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________________ ३७२ प्राकृत साहित्य का इतिहास कथा-ग्रंथों की भाषा महेश्वरसूरि ने ज्ञानपंचमीकथा में कहा है कि अल्प बुद्धिवाले लोग संस्कृत नहीं समझते, इसलिये सुखबोध प्राकृतकाव्य की रचना की जाती है, तथा गूढ़ और देशी शब्दों से रहित, सुललित पदों से गुंफित और रम्य ऐसा प्राकृत-काव्य किसके हृदय को आनन्द नहीं देता ? प्राकृत भाषा की इन रचनाओं को हर्मन जैकोबी आदि विद्वानों ने महाराष्ट्री प्राकृत नाम दिया है। धर्मोपदेशमालाविवरण में महाराष्ट्री भाषा की कामिनी और अटवी के साथ तुलना करते हुए उसे सुललित पदों से संपन्न, कामोत्पादक तथा सुन्दर वर्णों से शोभित बताया है। प्राकृत के इन कथाग्रन्थों में संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं का भी यथेष्ट उपयोग किया गया है। अनेक स्थलों पर बीच-बीच में सूक्तियों अथवा सुभाषितों का काम संस्कृत अथवा अपभ्रंश से लिया है। कई जगह तो सारा प्रकरण ही संस्कृत अथवा अपभ्रंश में लिखा गया है। देशी भाषा के अनेक महत्त्वपूर्ण शब्द इस साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं ।' प्राकृत कथाओं के रचयिता प्रायः प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं पर समान पांडित्य रखते थे, इसलिये भी प्राकृत रचनाओं में संस्कृत का उपयोग होना . . अनिवार्य था। १. उदाहरण के लिये सूयरपिल्ला (सूअर का पिल्ला; वसुदेवहिण्डी), छोयर (छोकरा; उपदेशपद), जोहार (जुहार; धर्मोपदेशमाला), चिडम (चिड़िया; ज्ञानपंचमीकहा), 'रोल (शोर; सुरसुंदरीचरिय), बुंबाओ (गुजराती में बूम मारना-चिल्लाना; भवभावना,), गालिदाण (गाली देना; पासनाहचरिय, नाहर (सिंह; सुदंसणचरिय), उंडा (गहरा; सुपासनाहचरिय ) आदि । परिशिष्ट नंबर १ में इस प्रकार के महत्वपूर्ण शब्दों की सूची दी गई है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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