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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास नियम बताये गये हैं। अहिंसाव्रत की पाँच भावनाओं का विवेचन है। दूसरे द्वार में सत्य की व्याख्या है। सत्य के प्रभाव से मनुष्य समुद्र को पार कर लेता है और अलि भी उसे नहीं जला सकती। सत्यव्रत की पाँच भावनाओं का विवेचन है। तीसरे द्वार में दत्त-अनुज्ञात नामके तीसरे संवर का विवेचन है। पीठ, पाट, शय्या आदि ग्रहण करने के संबंध में साधुओं के नियमों का उल्लेख है | व्रत की पाँच भावनाओं का विवेचन है। देशमशक के उपसर्ग के संबंध में कहा है कि देशमशक के उपद्रव से साधुओं को क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और डाँसमच्छरों को भगाने के लिये धूआँ आदि नहीं करना चाहिये। चौथे द्वार में ब्रह्मचर्य का विधान है। इस व्रत का भंग होने पर व्रती विनय, शील, तप और नियमों से च्युत हो जाता है, और ऐसा लगता है जैसे कोई घड़ा भग्न हो गया हो, दही को मथ दिया गया हो, आटे का बुरादा बन गया हो, जैसे कोई काँटों से बिंध गया हो, पर्वत की शिला टूटकर गिर पड़ी हो और कोई लकड़ी कटकर गिर गई हो। ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन करने के लिये बत्तीस प्रकार की उपमायें दी गई हैं। ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं का विवेचन है। स्त्रियों के संसर्ग से सर्वथा दूर रहने का विधान है। पाँचवें द्वार में अपरिग्रह का विवेचन है । साधु को सर्व पापों से निवृत्त होकर मान-अपमान और हर्ष-विषाद में समभाव रखते हुए काँसे के पात्र की भाँति स्नेहरूप जल से दूर, शंख की भाँति निर्मल-चित्त, कछुए की भाँति गुप्त, पोखर में रहनेवाले पद्मपत्र की भांति निर्लेप, चन्द्र की भाँति सौम्य, सूर्य की भाँति प्रदीप्त और मेरु पर्वत की भाँति अचल रहने का विधान है। विवागसुय (विपाकश्रुत) पाप और पुण्य के विपाक का इसमें वर्णन होने से इसे विपाकश्रुत कहा गया है।' स्थानांग सूत्र में इसे कम्मविवाय १. अभयदेव की टीका सहित वि. सं. १९२२ में बड़ौदा से प्रकाशित
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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