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________________ - - - सूत्रकृतांग सूत्र । - - परन्तु संसार में कितने ही बुद्धिमान् मनुष्य ऐसे भी होते हैं . जो विवेक-विचार से संसार के पदार्थ और भोगों का स्वरूप जान .. लेते हैं। वे देखते हैं कि मनुष्य खेत, घर, धन, सम्पत्ति मणिमाणिक अादि पदार्थ तथा शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध श्रादि विषयों तथा . कामभोगों को अपना और अपने को उनका मानते हैं; किन्तु वास्तव में उनको अपना नहीं कहा जा सकता क्यों कि जब रोग, शोक श्रादि अपने न चाहने और बुरे लगने पर भी आते हैं तो कोई कामभोगों ... को जाकर कहने लगे कि, " कामभोगो! इस दुःखपूर्ण व्याधि को तुम ले लो क्योंकि मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है " तो सार के समस्त कामभोग उसके दुःख अथवा व्याधिको लेने में असमर्थ रहते . हैं । फिर, कई बार मनुष्य ही कामभोगों को छोड़कर चला जाता है । तो कई बार काम भोग उसको छोडकर चले जाते हैं । इस लिये, वास्तव में प्रिय से प्रिय कासभोग भी अपना नहीं है और न हम उनके ही । तो फिर हम उनमें इतनी ममता क्यों रक्खें ? ऐसा सोचकर वे उनका त्याग कर देते हैं । माता पिता का वस्तुएँ पार्थ तो बहिन ऊपर बताये हुए पदार्थ तो बहिरंग है। इनकी अपेक्षा भी नीचे की वस्तुएँ अति निकट मानी जाती हैं, जैसे माता पिता, स्त्री, बहिन, पुत्र, पुत्रिया, पौत्र, पुत्रवधुएँ, मित्र, कुटुम्बी और परिचित .जन। मनुष्य समझता है कि ये सम्बन्धी उसके हैं और वह उनका । परन्तु जब रोग आदि दुःख पा जाते. हैं तो दूसरा कोई उसको नहीं ले सकता और न दुसरा दूसरे का किया हुया भोग सकता है। मनुष्य अकेला जन्म लेता और अकेला मरता है-दूसरी योनियों में जाता है । प्रत्येक के रागद्वेप, ज्ञान, चिंतन और चेदना. स्वतन्त्र होती है । कभी वह सम्बन्धियों को छोड़कर चला जाता है
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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