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________________ - पुंडरीक ७६ ] तो कभी वे उसे छोड़कर चले जाते हैं । इसलिये, ये निकट जान पड़ने वाले सम्बन्धी भी अपने से भिन्न हैं और हम उनसे भिन्न हैं: तो फिर इनमें समता क्यों रक्खें ? ऐसा सोचकर वे उनका त्याग कर देते हैं । श्रागे नीचे की वस्तुएँ तो अपने इव सम्बन्धियों की अपेक्षा भी निकट की मानी जाती हैं, मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरी जांघ, मेरा पेट, मेरा स्वभाव, मेरा चल, मेरा रंग, मेरी कांति श्रादि । मनुष्य इन सबको अपना समझकर इनके प्रति ममता रखता है किन्तु वे अवस्था के जाते ही अपने को बुरा लगने पर भी जीरी हो जाते हैं, संधियाँ ढीली पड जाती हैं, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, चाहे जैसा सुन्दर रूपरंग और अंगों से युक्त विविध श्राहारादि से पुष्ट शरीर भी समय बीतने पर व्याज्य घृणाजनक हो जाता है । ऐसा देखकर वे बुद्धिमान् मनुष्य उन सब पदार्थों की श्रासक्ति को छोड़ कर भिक्षाचर्या ग्रहण करते हैं। कितने ही अपने सम्बन्धी और संपत्ति धन को त्याग कर भिक्षाचर्या ग्रहण करते हैं; दूसरे कितने ही जिनके सम्बन्धी और सम्पत्ति नहीं होते वे अपनी ममता त्याग कर भिक्षाचर्या ग्रहण करते हैं । [१३] • प्रकार के फिर सद्गुरु की शरण लेकर सद्धर्म का ज्ञान प्राप्त कर वह भिक्षु जानता है कि यह जगत त्रस और स्थावर में विभक्त है } इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और बस छः समस्त जीवों के भेद अपने कर्मानुसार था कर रहे हैं । ये के जीव परस्पर श्रासक्ति और परिग्रह से होने वाली हिंसा यादि से कर्मबन्धन को प्राप्त होते हैं । परन्तु जैसे कोई मुझे लकडी श्रादि छः प्रकार
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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