SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतांग सूत्र एक दूसरे मिथ्या बाद के विषय में और कहूं। कितने ही मलिन हो सकता है, वैसे ही फिर पापयुक्त मलिन हो सकता :: कहते हैं कि, "शुद्ध पानी जैसे प्रयत्नों से शुद्ध, निष्पाप संयमी सुनिं हैं । तो फिर ब्रह्मचर्यादि प्रयत्नों का क्या फल रहा? और सब वाढ़ी अपने वाद का गौरव तो गाते ही हैं । कुछ वादी सिद्धियों ( ग्रणिमा, गरिमा आदि) का गौरव करते हुए कहते हैं, "देखो, हम तो अपनी सिद्धि के बल से समाधि में और रोग रहित होकर यथेच्छ इस जगत् में उपभोग करते हैं ।" [ ११-१५] = ] ~~/ANS AUNT अपने अपने सिद्धान्त की ऐसी ऐसी मान्यता रख रत रहने वाले ये सब श्रसंयमी लोग संसार के इस गोते खाते हुए कल्पों तक प्रथम असुर वन कर कर उसी में श्रनादि चक्र में आवेंगे । [ १६ ] (४) राग-द्वेषों से पराजित ये सब वाड़ी अपने को पंडित मानते हैं और त्यागी सन्यासी होने पर भी सांसारिक उपदेश देते रहते हैं । ऐसे ये मन्दबुद्धि पुरुष तुम्हारा क्या भला कर सकते थे ? अतएव, समझदार विद्वान् भिक्षु इन की संगति में न पडकर निरभिमान-निरासक्त हो कर राग द्वेपातीत ऐसा मध्यम-मार्ग ले कर मुनि-जीवन व्यतीत कां । ऐसा कहने वाले भी पडे हैं कि परिग्रही और प्रवृत्तिमय होने पर भी मुक्त हो सकते हैं । इस को न मानकर भिक्षु को अपरिग्रही और निवृत्तिमय जीवन की शरण लेना चाहिये । विद्वान् भिक्षु को दूसरे के लिये तैयार किये हुए थाहार को जो राजी से दिया जाय, भिक्षा में लेना चाहिये । रागद्वेपरहित हो, किसी का तिरस्कार न करे | कैसे कैसे लोकवाद प्रचलित हैं ! जैसे; लोक अनन्त है, नित्य है, शाश्वत हैं, अपरिमित है, इत्यादि । विपरीत बुध्धि से उत्पन्न या
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy